हपिकेस क्षत्रो, आगरे के २८१ अपने घर जाउं । तव श्रीगुसांईजी प्रसन्न होइ के एक गुलाव को फूल श्रीनाथजी को प्रसादी हपिकेस को दियो। तव हृपिकेस फूल ले दंडवत् करि श्रीगोकुल तें चले । सो दूसरे दिन आगरे में अपने घर आये । सो गुलाव को फूल हृषि- केस ने अपने जप के साज में राख्यो। नित्य दरसन करि के उह फूल को दंडवत् करे । ऐसे करत बोहोत दिन वीते । घार्ता प्रसंग-३ और एक दिन हृषिकेस राजभोग तें पहोंचि के महा- प्रसाद ले कै उठे। ताही समे दोइ वैष्णव श्रीगुसांईजी के सेवक आगरे में आए । सो हपिकेस सों भगवद्वार्ता स्मरन किए । तव हपिकेस वोहोत प्रसन्नता सों कहे, जो - महाप्रसाद लेऊ । तव वैष्णवन ने नाहीं करी। तव हृषिकेस ने कही, जो - सीधो लेऊ, कोरे वासन लेऊ, रसोई करो। और कृपा करि हमारे यहां लेऊ तो सोऊ सिद्ध है । तब वैष्णव नाहीं करि के उठि गए । तव हपिकेस के मन में महादुःख भयो । जो - मैं बड़ो अभागो हूं। जो-वैष्णव मेरो नाहीं अंगीकार करत हैं। या प्रकार सगरी रात्रि खेद करत रहे। और वे वैष्णव आगरे में श्रीयमुनाजी के किनारे एक चोंतरा पर सोइ रहे। उप्णकाल को दिन हतो। सो खरची की खडिया कुत्ता ले गयो। सो प्रातःकाल उठि कै उह वैष्णव देखे तो खरची को खड़िया नाहीं है । तब वे वैष्णव चिंता करन लागे, जो-अब कहा करें। पाहें मन में विचारे, जो-हम काल्हि हुपिकेस के घर गए । सो. वह वेष्णव (कों) बोहोत दुःख भयो होइगो। ता करि के हमारी खरची गई। हम दुःखी भए । तातें आजु हृपिकेस के घर अव-
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