२७५ हपिकेस क्षत्रो. आगरे के महाराज । मोकों घर जाँइवे की आज्ञा होइ । तव श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो- राजभोग आति पाठे तोकों विदाय करेंगे। तव दंडवत् करि के हृपिकेस स्नान करिवे को गये । पाठे राजभोग ताई दरसन किये । पाछे श्रीगुसांईजी अनोसर कराय कै वैठक में पधारे । पाछे आपु श्रीगुसांईजी सब बालकन सहिन भोजन किये। ता पाछे हृपिकेस को श्रीगुसांईजी ने जूंठनि की पातरि धरी । पाछे आप गादी पर विराजे वीरा आरोगत भए । तव हपिकेस महाप्रसाद ले के पाठे आय के श्रीगुसांईजी कों दंडवत् कीनी । पाठे विदा मांगी । तव श्री- गुसांईजी ने खवास सों प्रसादी उपरेना मंगाए । तव हपिकेस ने श्रीगुसांईजी सों विनती करि कै प्रसादी उपरेना की नाही कराई । तव श्रीगुसांईजी ने कही, जो- तू प्रसादी उपरेनाकी नाहीं काहे कों करावत है ? तव हपिकेस विनती किये, जो- महाराज ! मोसों कछू राज की सेवा नाहीं वनि आई । और आप के घर को खरच अधिक करायो है । एक मनुष्य घोड़ा की चाकरी को चाहिए । दाना घास भंडार ते खरच होइगो। सो कहा करों महाराज! मेरो कछु वस नाहीं है। आप तो अंतरजामी हो। सब जानत हो। ऐसें हृपिकेस के देन्यता के वचन सुनि कै श्रीगुसांईजी बोहोत ही प्रसन्न भए । पाठे खवास सों उपरेना की नाहीं किये । पाळे हृपिकेस कोपास वुलाय के अपने श्रीहस्त में उगारु ले के हृषिकेस को दिये । सो ले कै हपिकेस वोहोत प्रसन्न भए। पाठे हपिकेस श्रीगुसां- ईजी को दंडवत् करि कै अत्यंत प्रीति सो विदा भए। तब हृषिकेस की प्रीति देखि श्रीगुसांईजी को हृदो भरि आयो ।
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