हृपिकेस क्षत्री, आगरे के २७१ मंगला करि सिंगार करि पाडे गोपीवल्लभ सों पहोंचि के मन में यह विचार किये, जो-अवलख रंग को घोड़ा ता पर मख- मल की जीन होंई ऐसो घोड़ा होइ तो ता पर चढि श्रीनाथजी द्वार जइये । सो इहां हपिकेस प्रात ही मलाह कों कछुक पैसा दे वेगि ही पार उतरि कै श्रीगुसांईजी के द्वारें आइ के घोड़ा ले के ठाढ़े होंई रहे। तव विष्णुदास पोरिया ने कही, जो- तुम कौन हो ? कहां ते आए हो? और घोड़ा लिये द्वार के पास ठाढ़े क्यों हो? तव हृषिकेस ने विष्णुदास पोरिया सों कह्यो, जो - यह घोड़ा श्रीगुसांईजी की भेंट है। और मैं श्री- गुसांईजी कौ सेवक हों। हृषिकेस मेरो नाम है । आगरे में रहत हों । यह सुनि के विष्णुदास श्रीगुसांईजी के पास आय के विनती कीनी, जो महाराज ! आगरे में हपिकस रहत हैं। सो आप कौ सेवक है । सो घोड़ा वोहोत सुंदर भेंट ल्यायो है। सो द्वार ऊपर ठाढ़ो है । यह सुनि के आप श्रीगुसांईजी द्वार ऊपर पधारे। तव हृपिकेसने श्रीगुसांईजी को दंडवत् करि विनती कीनी, जो-महाराज! यह घोड़ा आपु की भेंट है । या प्रकार हपिकेस की विनती सुनि के घोड़ा को देखि के वोहोत प्रसन्न भए, श्रीगुसांईजी। तव आपु श्रीमुख सों आज्ञा किये, जो-आजु मेरे मन में यह आई हती, जो-अवलख रंग की घोड़ा और मखमल के साज की जीन ता पर चदि के श्रीनाथजीद्वार चलिये । सो तू मेरे मन की जानी। तब हृपि- केस ने विनती कीनी, जो- महाराज! हम तो अज्ञानी जीव हैं । कछू जानत नाहीं । और आपु तो दयाल हो । सो हमारं ऊपर कृपा करत हो। यह देन्यता के बत्रन मुनि के श्रीगुसां-
पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२८०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।