२७० दोसौ बावन वणवन की वार्ता घोड़ा ले जाऊ । यह सुनि के हपिकेस मन में बोहोत प्रसन्न भए । तव वह अवलख रंग को घोड़ा वह सोदागर के ह्यां तें ले के अपने घर ल्याय पाछे विचार कियो, जी - घोड़ा तो हाथ में आयो। अव वाके ऊपर सुंदर जीन चाहिए। तब एक आगरे में सेट हतो ताके घर गए । तब वह सेठ सों हपिकेस ने कह्यो, जो-तुम्हारे घर नई मखमल के साज की जीन वनी है सो हम को देउ, तो हम कों (ऐसी) दूसरी वनवानी है। फलाने सोदागर हजार दोइ घोड़ा ल्याये हैं। तामें तें हजार घोड़ा तो विक चुके हैं। सो कछुक घोड़ा एक उमराव ने लिये हैं। ताकों जीन हू वनवाय देनो हे, सो तुम देउ तो आछौ है । तव उन सेठ ने कह्यो, जो-ले जाऊ, घर तुम्हारो है। दस-पांच दिन राखियो।हमारे अव ही असवारी कों दिन दस-पंद्रह की ढील है। तव हपिकेस जीनले के आयो। सो घर में आइ वा घोड़ा पर जीन करि पाछे अपनी स्त्री लरिकान सों कहे, जो-मैं श्रीगोकुल जात हों। तुम नीकी भांति सों ठाकुरजी सों पहोंचियो । और कोई जो पूछन आवे तो ऐसे कहियो, जो- घोड़ा वेचन गये हैं। परि श्रीगोकुल को नाम मति लीजियो । तव स्त्री-पुत्र ने कह्यो, जो- तुम सुखेन जाउ। हम ऐसे ही कहेंगे। तव हृषिकेस घोड़ा की लगाम पकरि चाबुक अपने हाथ में ले या भांति अवलक घोड़ा कों ले आपु पांइन सों श्रीगोकुल चले। मन में यह विचारे, जो-यह घोड़ा श्रीगुसांईजी की है। सो या हों कैसें चढों ? या प्रकार चले। सो श्रीगोकुल के साम्हें 'मोहनपुर में आय पहोंचे । सो घरी दोइ रात्रि रही। तातें 'मोहनपुर' में रहे । पाठें प्रातःकाल भयो तब इहां श्रीगुसांईजी न्हाय कै श्रीनवनीतप्रियजी कों जगाए । पाठे
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