हपिकेस क्षत्री, आगरे के २६९ एक वोहोत सुंदर घोड़ा श्रीगुसांईजी की भेंट तो अवस्य करनो। सो ऐसो विचार मन में करत वोहोत दिन भए । तब एक सोदागर दो हजार घोड़ा ले के आगरे में वेचन को आयो। तव वह सोदागर हृषिकेस को बुलाय के कयो, जो - ये दोई हजार घोड़ा हैं । सो सव को देखि कै इनकी विकरी कराय देऊ । तव हृषिकेस ने सव घोड़ान को देखे. आछी भांति सों। तामें एक घोड़ा अवलख रंग को वोहोत सुंदर देखे। तामें एक हू ऐव नाहीं । तव हृपिकेस ने अपने मन में विचारयो, जो - यह घोड़ा श्रीगुसांईजी के लायक है, परंतु मैं अब कौन प्रकार यह घोड़ा श्रीगुसांईजी की भेंट करों ? मेरे घर में तो कळू द्रव्य नाहीं है। पाछे हपिकेस ने उह सोदागर सों कहे, जो - सगरे घोड़ा तुम को इहां बेचि के दाम करि कै देउंगो। ता समै अकवर देसाधिपति आगरे में हतो । सो फोज हती। सो हपिकेस सगरे जमातदारन सों पूछि के हजार घोड़ा तो वह सोदागर के वेचाय दिये। और वह अवलख घोड़ा काहू को दिखाए नाहीं। तब वह सोदागर हपिकेस के ऊपर वोहोत प्रसन्न भयो । तव हपिकेस सों वह सोदागर ने कही, जो - मेरे हजार घोड़ा और वेचि देऊ । तो तुम्हारी दलाली और एक घोड़ा मैं अपनी ओर ते देउंगो। तव हपिकेस ने कही, जो - मैं तुम्हारे सब घोड़ा विकाय देउंगो। परंतु अव मैं घोड़ा ले जाँइ कै दोइ-दोइ चार-चार मथुरा में, जहां तहां तें तुम्हारे दाम कराय देउंगो । तुम कहोगे तो तुम को अपनो घर लरिका वताइ देउंगो ! यह सुनि के सोदागर ने कह्यो, जो-हम तो तेरो विस्वास है। तातें जहां मन आवे तहां
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