हपिकेस क्षत्री, आगरे के २६७ तव वह गौरवा ने कह्यो, जो - मेहा तो वैष्णव हतो । सो अपनो काल आयो पहिले ही जान्यो । सो सब के दाम करि के काल्हि मोकों दस-वीस रुपैया दियो । तातें तू अव खाली घर हे वामें रहे, चाहे मति रहे । तव वह रोई के वेठि रह्यो। पाठे चाचाजी आदि सब वैष्णव श्रीगोकुल आए । तव सव समाचार श्रीगुसांइजी सों कहे । तव श्रीगुसांईजी मेहा के ऊपर प्रसन्न होइ कै श्रीमुख सों सराहना किये। भावप्रकाश-यामें यह जताए, जो - वैष्णव को भगवत्सेवा विना जीवनो व्यर्थ है । ताते भगवत्सेवा में काल को व्यतीत करनो । सो मेहा और मेहा की स्त्री बड़े भगवदीय कृपापात्र.हते तातें इनकी वार्ता को पार नाहीं । सो कहां तांई कहिए। वार्ता ॥ १३६ ॥ अघ श्रीगुसांईजी के सेषक हृषिकेस क्षत्री, आगरा म रहते, तिनको घार्ता को भाव कदत है भावप्रकाश--ये राजस भक्त हैं । लीला में इन को नाम 'मनआतुरी' है । ये 'सुमन्दिरा' तें प्रगटी हैं । ताते उनके भावरूप हैं । ये आगरा में एक क्षत्री के जन्मे । सो वरस वीस के भए तब इनकी विवाह कियो । पाछे कक दिन में माता-पिता मरे । तब हपिकेस घोड़ान की दलाली करन लागे । सो व्योहार-काज में तृपिकेस को रूपचंदनंदा सों मिलाप भयो । सो ये रूपचंदनंदा के घर नित्य जाते । सो एक समै घरी दिन चढ़े श्री- गुसांईजी आगरा पधारे । तब रूपचंदनंदा के घर विराजे । सो ता सम हपिफेम रूपचंदनंदा के घर कछ् व्यौहार-काज को आए हुते । सो इनको श्रीगुसांईजी के दरसन भए । सो हपिकेस दोङ हाथ जोरि के ठाढ़े रहे। श्रीगुसांईजी हपिकेस की ओर देखें । पाछे हपिकस को आजा किये, जो-हपिकेस ! अब कहा विलंब है ? तब ही हषिर्कस को श्रीगुसांईजी आप साक्षान् श्रीमदनमोहनजी के स्वरूप सों दरसन दिये । सो हुपिकेस मूर्छित होई गए । वह स्वरूप हृदय में धाग्न करि न ।
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