२६६ दोमो घावन वैष्णवन की वार्ता और तू काहू बात की चिंता मति करियो । मध्याह्न समै तेरी देह छूटेगी। बोहोत दुःख तु मति करे । श्रीगुसांईजी कों वोहोत दुःख होत हैं । तेरो दुःख नाहीं सहि सकत । तव मेहा उठि के चरनामृत लियो। श्रीगुसांईजी कों दंडवत् कियो। और कह्यो, चाचाजी ! अव मोकों धीरज भयो है । जो - या समै मोकों तुम सारिखे वैष्णव दरसन देने आये । और श्री- गुसांईजी मोकों सुधि किये । मैं तो महा पतित हों। प्रभु वड़े दयाल हैं । या भांति वार्ता करत मध्याह्न को समै भयो। तव मेहा ने सारंग में नयो कीर्तन कियो । राग:मरग श्रीविठ्ठल की सरनि न आयो जनम आपुनो खोयो हो । जो सेवा-रस स्वाद न चाख्यो जनम जनम सो रोयो हो । यह कलिकाल कराल व्याल सम महा अघन को मूल हो । 'मेहा' प्रभु गिरिधर विनु सुमिरे सहे त्रिविध दुःख सूल हो॥ यह कीर्तन मेहा करि देह छोरि लीला में प्राप्त भयो । पाछे चाचाजी आदि सब मिलि कै मेहा को संस्कार कियो । पाछे मेहा के लरिका ने सुनो, जो - मेहा की देह छुटि गई । तब वह मेहा के घर में आयो। जो - घर में आय के देखे तो श्रीठाकुरजी घर में नाहीं है । और हू कछु वस्तू घर में नाहीं है। तब उन वैष्णव सों पूछ्यो, जो - घरमें की वस्तु कहां गई ? तब चाचाजी कहे, जो- हम तो आज आए हैं। तू अपने गाम में पूछि देखि । तब वह महा कौ लरिका वा गाम के लोगन के पास आयो। और कह्यो, जो - मेहा तो मरयो, घर में कछु बस्तू नहीं है । सो इन वैष्णवन लीनी होइगी।
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