मेहा धीमर, गोपालपुर को २५७ खेती घर सोंपि अपनी स्त्री, श्रीठाकुरजी सहित श्रीगोकुल आए। पाछे दिन द्वै-एक में श्रीगोकुल ते श्रीगुसांईजी श्रीजीद्वार पधारे । तव मेहा श्रीठाकुरजी को लेक स्त्री सहित गोपालपुर में आए। तब श्रीगुसांईजी गाँइ की खरिक में एक कौठा मेहा कों वतायो । तामें मेहा लीप के खासा करि के रह्यो । सो अन्न- कूट की ठौर करयो । मृतिका को मंदिर वनायो । यथासक्ति थोरी थोरी सामग्री करयो । श्रीगुसांईजी, श्रीनवनीतप्रियजी सहित सातों स्वरूप ले श्रीगोकुल तें पधारें । गोवर्द्धन-पूजा श्रीनवनीतप्रियजी ने करी । पाछे सातों स्वरूप सहित श्रीना- थजी अन्नकूट आरोगे । सो मेहा श्रीनाथजी के अन्नकूट के दरसन करि विवस भयो। सो मेहा को साक्षात् अनुभव भयो। सो भाव सहित मेहा अपने घर आयो । तव मेहा की स्त्री दरसन को गई। सो वाहू को साक्षात् अन्नकूट लीला को दरसन भयो । पाछे आप खरिक में आय के अपने श्रीठाकुर- जी को अन्नकूट भाव सहित पूजे । सो साक्षात् दरसन श्री- ठाकुरजी के मेहा और मेहा की स्त्री को भए । ता समे मेहा ने ये कीर्तन सारंग में गाये। राग सारंग हमारो देव गोवर्द्धन पर्वत. गोधन जहां सुखारो। सुरपति कौं वलि भाग न दीजे, कीजे मतो हमारो॥ पावक पवन चंद जल सूरज, वर्तत आज्ञा लीन । ता सुरपति को कियो सब होत हैं, कहा ईंद्र के दीन ।। जाके आसपास सब ब्रजकुल, सुखी रहें पसु पालें। जोरो सकट अछूतें लेले, भलो मतो को टारें। ३३
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