पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२६८

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मेहा धीमर, गोपालपुर की २५५ मन वस्त्र-सेवा पै है के स्वरूप-सेवा पे ? तब मेहा ने विनती करी, जो - महाराज ! मेरो मन स्वरूप-सेवा पै हैं । जो वालक की नाई सेवा करों । यह सुनि के श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो- यहां तू एक हाथ धरती खोदि इहां स्वरूप निक- रेगो । तव मेहा ने श्रीयमुनाजी के किनारे खोद्यो। सो एक छोटो सो स्वरूप गौर वरन परम सुंदर निकरयो । सो श्रीगु- सांईजी उह स्वरूप को अपने डेरा पै ले आए। एक संपुट में पधराय कै भोग धरि कै पाजें मेहा को दिये । सव सेवा कौ प्रकार कहे । और कहे, जो-सेवा में सावधान रहियो। तव मेहा स्त्री सहित श्रीगुसांईजी कों दंडवत् किये। पाछे एक कीर्तन गायो- राग भैरव श्रीविठ्ठल प्रभु महा उदार। महा पतित सरनागति लीनो नि: करि दीनो निर्धार । वेद पुरान सार जो कहियत सो पुरुषोत्तम हाथ दियो । 'मेहा' प्रभु गिरिधर फिरि प्रगटे पुष्टि भक्ति सुदृढ कियो । यह कीर्तन सुनि कै श्रीगुसांईजी बोहोत प्रसन्न भए । जाने, याकों स्वरूप को ज्ञान भयो । पाछे श्रीगुसांईजी श्रीगो- कुल पधारे । और मेहा गोपालपुर में भली भांति सों सेवा करे । कबहू संदेह परे उत्सव में मार्ग की रीति में तो श्रीगो- कुल जाँइ श्रीगुसांईजी सों पूछि आवे । भावप्रकाश-यामें यह जतायो, जो - सेवा गुरु की आज्ञा प्रमान करे । मन कल्पित प्रकार सों न करें। नॉतरु प्रभु प्रसन्न न होई । सो श्रीआचार्यजी महाप्रभु 'नवरत्न' ग्रंथ में लिखे हैं। सो श्लोक- सेवा कृतिगुरोराजा बाधनं वा हरिच्छया ।' तातें गुरु की आज्ञा प्रमान सेवा करें. यह सिद्धांत भयो।