२४६ दोसौ घावन वैष्णवन की वार्ता तव यह क्षत्री हू रूपचंदनंदा के घर आयो। पाछे श्रीगुसांईजी सों विनती कियो, जो-महाराज! मोकों अपनो सेवक कीजिए। तव श्रीगुसांईजी इनकों देवी जीव जानि नाम सुनाए। ता पाछे दूसरे दिन निवेदन कराए। पाठे श्रीगुसांईजी आप वा क्षत्री सों कहे, जो - वैष्णव ! तुम रूपचंदनंदा को संग करियो । तातें तुम्हारो कल्यान होइगो । तब यह क्षत्री नित्य रूपचंदनंदा के घर जातो भगवद्वार्ता सुनतो। पाछे श्रीगुसांईजी तो कछुक दिन में श्रीगोकुल पधारे । सो यह जव सरनि आयो। तव वाके मन में यह मनोरथ भयो, जो हो श्रीगुसांईजी के सब वालक वहू वेटीन को उत्तम ते उत्तम वस्त्र पहिराउं । सो वाकी हाट में तो वस्त्र उत्तम ते उत्तम वोहोत आवे । सो सारी जरीन की तथा गुजराती कीनखाव तथा जरीन के थान, सो सब जूदे काढ़ि के धरे। सो सव वरस दोई तीन में दोई गांटि भरि के जो वस्त्र भेले किये सो एक में पुरुष के पहिरवे के वस्त्र और दूसरी में स्त्रीन के पहिरवे के वस्त्र, सो गांठि दोइ न्यारी न्यारी कर के वह क्षत्री वैष्णव बजाज दोऊ गांठि वस्त्र की लेके आगरे सों चल्यो । सो श्रीगोकुल आयो। सो श्रीगुसांईजी गादी तकिया पर विराजे हते । सो वह क्षत्री वैष्णव आइ के श्रीगुसांईजी कों साष्टांग दंडवत् कियो । तव श्रीगुसांईजी आपु वासों पूछे, जो-तू कव आयो ? तब वह वैष्णव क्षत्री ने कह्यो, जो- महाराजाधिराज ! आगरे ते अवही आवत हूं। सो महाराजा- धिराज! मोकों बहोत ही दिन ते महाराज के दरसन को मनोरथ हतो, जो-मैं अब के सब बालक बहू-बेटी सबन कों उत्तम ते उत्तम वस्त्र पहिराउं। सो महाराजाधिराज ! बोहोत
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