एक विरक्त, गोकुल को २४३ पूछी हती । सो श्रीगुसांईजी कहें, जो - दोइ-चारि वरस पर- देस करेगे तव वह परदेस तें दोइ-चारि हजार आवेंगे। सो खरच तें रुपैया वचंगे तव रुपैया मिलेंगे। अव ही तो रुपैया नाहों है । तव वह क्षत्रानी ने कही, जो - मैं तुम सों पहिले ही कही हती, सो तुम मेरे रुपैया ल्याय देऊ । अव ही तुम श्रीगुसांईजी के पास जाऊ । कहूं तें उधार काढ़ि के श्रीगुसां- ईजी देहिंगे । कब परदेस पधारेंगे सो कह्यो न जॉई। और तुम मेरे रपैया ल्यावोगे तो मेरी तुम्हारी प्रीति रहेगी। तब वैष्णव ने उह क्षत्रानी सों को, जो- कदाचित् अव ही रुपैया न मिले तो कहा करूँ ? यह सुनि के उह क्षत्रानी ने अपने दो मनुष्य बुलाय कै उह वैष्णव के पीछे कर दिये और कह्यो, जो- अव ही तो ये मनुष्य तुम्हारे पीछे किये हैं। और रुपैया न ल्यावोगे तो मथुरा में जाँइ के बंदीखाने तुम को देउंगी। तातें अव ही जाँइ कै रुपैया को ले आउ। तव वैष्णव श्रीगु- सांईजी के पास चल्यो । और वे दोइ मनुष्य संग चले । सो श्रीगुसांईजी भोजन करि गादी तकिया पर विराजे हते । ता समै यह वैष्णव जाँइ श्रीगुसांईजी कों दंडवत् कियो । तब हँसि कै श्रीगुसांईजी उह वैष्णव कों पूछे, जो-वैष्णव ! तुम क्यों आये ? और ये दोई मनुष्य तुम्हारे संग कैसें आये ? तव वैष्णव कह्यो, जो-महाराज! उह क्षत्रानी में मेरे पीछे करि दिये हैं। और मोसों कह्यो है, जो- तुम रुपैया न ल्यावोगे तो मैं तुम्है बंदीखाने मथुरा को जाँइ के दिवाउंगी, तातें रुपैया आज ल्याऊ। सो महाराज मोकों वड़ो संकट परयो है। तव श्रीगुसांईजी कहे, जो- हम तो तुम सों पहिले ही कही
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