२४२ दोमो बावन वैष्णवन की वार्ता की वात नाहीं कहे । सो महिना दोई वीति गए । तव वह क्षत्रानी विरक्त सों कह्यो, जो-महिना दोइ वीति गए तुम रुपैया ल्याये नाहीं। तब इन क्ह्यो, जो-जा दिन तें में रुपेया श्रीगुसांईजी कों दिये हैं ता दिन ते आप मोसों वोलत नाहीं। और काह दिन उन रुपेयान की चर्चा हु नाहीं किये। सो अव मैं कैसी करों? तब वह क्षत्रानी ने कही, तुम श्रीगुसांईजी सों पृछो तो सही । तब उह वेष्णव जाँइ के श्रीगुसांईजी के पास वैट्यो। परंतु संकोच करि के पछि न सक्यो । ऐसें ही दोइ दिन बीति गए। तब वह क्षत्रानी ने वैष्णव सों कह्यो, जो- ऐसे संकोच किये केसे वनेगी ? तुम जरूर आज श्रीगुसांईजी सों पूछो। तव वह वैष्णव आइ कै संकोच सहित श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जा- महाराज ! वह क्षत्रानी के पांच हजार रपेया जो हैं, सो मैं उधार ल्याय कै दियो हूं। सो वह क्षत्रानी मोसों मांगति हैं। तव श्रीगुसांईजी कहे, जो-वैष्णव ! हमारे पांच हजार रुपैया अव ही कहां तें आए ? दोई-चार वरस को परदेस करेंगे । तव खरच बचेगो तब हम देइंगे। और तुम्हारी तो वह क्षत्रानी सों बड़ी प्रीति हैं । तुम सों वह क्यों मांगति है ? यह श्रीगुसांईजी के वचन सुनि के वह वैष्णव सूकि गयो। मन में कहो, जो - मैं वोहोत बुरी करी। जो - उह क्षत्रानी कौ द्रव्य लियो। अव में क्षत्रानी को कहा जुवाव देउंगो ? पाछे वह वैष्णव उठिकै सोच करत उह क्षत्रानी के पास आयो। तब वा क्षत्रानी वा वैष्णव सों कही, जो- तुम श्रीगुसांईजी सों रुपैयान की पूछी हती ? तव वह वैष्णव ने कही, जो-मैं
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