एक विरक्त.गोकुल को २४१ गुसांईजी मोसों मांगे हैं, सो दिन दसवीस में आप के यहां हुंडी आवेगी तव मैं ल्याय देउंगो । सो मोकों देउ । तब वा क्षत्रानी ने कही, जो रुपैया चाहो सो तुम ले जाऊ । परंतु तुम ही मोकों ल्याय दीजो। मैं श्रीगुसांईजी की सेवकिनी हूं। तासों मैं उन सों रुपैया नाहीं मांगूंगी। तव उन विरक्त वैष्णव ने कही, जो - तू चिंता मति करे । श्रीगुसांईजी कह्यो है सो हुंडी मैं तोकों ल्याय देउंगो। यह सुनि के वह क्षत्रानी पांच हजार रुपैया की थेली निकासि वा विरक्त कों दीनी । सो वह विरक्त वे थेली ले कै श्रीगुसांईजी के पास महा आनंद सों आयो । मन में वैष्णव ने विचारयो, जो-आज क्षत्रानी वोहोत काम आई । जो-वह रुपैया न देती तो मैं श्रीगुसांईजी कों कहा देतो? तातें यह क्षत्रानी बड़ी हितकारनी है । पाठे पांचो हजार रुपैया लेकै श्रीगुसांईजी के आगे धरि के दंडवत् कियो। तव श्रीगुसांईजी (ने) उह वैष्णव की वोहोत वड़ाई करी। कयों, जो-वैष्णव ! तू भले समे रुपैया ल्यायो । हमारे जरूरी कामं हतो। तव वैष्णव ने कह्यो, जो-महाराज! वह क्षत्रानी के पास तें ले आयो हूं। यह सुनि कै श्रीगुसांईजी कहे, जो-प्रीति स्नेह ऐसो ही चहिए । जो- मांगिये सो मिले । पाठे वेष्णवं कों एक वीरा दे के श्रीगुसांईजी विदा किये । ता पाठें एक काट के सिंदूक में पांचों थेली धरि तारौ लगाय के धरती में गड़ाय दिये। और वेष्णव वीरा ले के उह क्षत्रानी के पास आयो । आधो वीरा वह क्षत्रानी को दिया। वह वेष्णव मन में वोहोत प्रसन्न भयो। पाठे श्रीगुसांईजी कछ बोले नाहीं । कव हु रुपैया देव
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