वार्ता प्रसंग-३ मुरारी आचार्य, खंभाइच के २२९ ते वाहिर निकसि आउ । सो घर में ते सगरे निकसे । तब मुरारीदास ने घर भरयो जैसो को तैसो द्वारे एक शुक्ल ठाड़ो हतो ताको दियो। पाठे स्त्री लरिका साथ लै के मुरारीदास गाम ते निकसन लागे । सो एक वैष्णव वा गाम में रहत हतो। तिन अपनो घर मुरारीदास को भेट कियो । सो वे मुरारीदास ऐसे टेक के कृपापात्र भगवदीय हते । सो सर्व वस्तू को त्याग करत मन में मोह न आयो । पाछे यह वात श्रीगुसांईजी ने सुनी । तब मुरारीदास उपर वोहोत प्रसन्न होइ के आपु कहे जो-वैष्णव को योंही चाहिये । भावप्रकाश---या यह जतायो, जो-वैष्णव को टेक ही बड़ो पदार्थ है । तातें भगवद्धधर्म दृढ़ होई। और एक समय मुरारीदास ने श्रीगुसांईजी को विनती पत्र लिख पठायो । जो - महाराज! कोइ एक ग्रंथ आपु कृपा करि के ऐसो लिख पठाओ. जासों वादीन को मुख भंजन करिए । सो पत्र मुरारीदास को श्रीगुसांईजी पास आयो । तब श्रीगुसांईजी मुरारीदास पास के पत्र उत्तर के साथ भक्तिहंस' ग्रंथ लिखि पठायो। तब मुरारीदासने माथे चढाइ पत्र-ग्रंथ कों वांच्यो । पाठे फेरि मुरारीदास ने श्रीगुसांईजी को विनती लिखी. जो- महाराज ! यह ग्रंथ वोहोत ही उत्तम है. सुंदर है । परि अगम है। सो पत्र को उत्तर मुरारीदास को श्रीगुसांईजी पास आयो । तव प्रभुन वांचि क वाको प्रतिउत्तर " भक्ति हेतु निर्णय ग्रंथ लिखि पठायो । सो पत्र मुरारीदास पास आयो । तब माथे चढाइ के मुरारीदास ने वा पत्र के साथ वा ग्रंथ को बांच्यो। मो
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