एक राजा, पूर्व को २२१ करि कै मधुसूदनदास कों जूंठनि की पातरि पंठाई । तव मधु- सूदनदास ने महाप्रसाद लियो । ता पाछे श्रीगुसांईजी पोड़ें। तव मधुसूदनदास पंखा करन लागे। ऐसें करत बोहोत दिन भए । तव मधुसूदनदास ने विनती कीनी, जो-महाराज! आप की आज्ञा होइ तो हम आपुने देस जांई । तव श्रीगुसां- ईजी ने मधुसूदनदास कों विदा किये । सो केतेक दिन में अपने घर आए । सो श्रीठाकुरजी की सेवा प्रीतिपूर्वक करन लागे। तव थोरेसे दिन में श्रीठाकुरजी सानुभावता जनावन लागे । सो वह मधुसूदनदास श्रीगुसांईजी के ऐसें कृपापात्र भग- वदीय हे। तातें इनकी वार्ता को पार नाहीं। सो कहां तांई कहिए। वार्ता ॥१२८॥ अव श्रीगुसांईजी को सेवक एक राजा, पूरब कौ, तिनकी वार्ता फी भाव कहत है- भावप्रकाश-ये राजस भक्त हैं । लीला में इन को नाम 'मनमोदिनी है । ये 'नीला' तें प्रगटी हैं, तातें उन के भावरूप हैं। ये पूरव में एक राजा के जन्म्यो । पाछे वरम अठारह को भयो तब याको पिता मरयो । तब ये राजा भयो । पार्छ एक समै वह जगन्नाथराइजी की यात्रा कों चल्यो। सो ता समै श्रीगुसांईजी आप जगन्नाथपुरी में विराजत हुते। तहां पंडितन सों सास्त्रार्थ करत हते । सो गाम को राजा तथा और ह लोग या सभा में आए हुते । सो वह राजा हू वा समै वहां आयो। ताही समै श्रीगुसांईजी आप मायावादीन कों निरुत्तर किये । तब यह राजा श्रीगुसांईजी को नेज प्रताप देखि आप की सरनि आयो । तब श्रीगुसांईजी आप वा राजा को नाम मुनाए । पाछे निवेदन कगए। तब राजा ने विनती कीनी, जो - महाराज ! मोको यह मारग स्फुरे सी कृपा करिये । तब श्रीगुसांईजी आप चाचाजी को बुलाई आना किये, जो-चाचाजी ! तुम कटक दिन या राजा के पास हि इन को मारग को ज्ञान कराउ । पाठे श्रीगुसांईजी तो आप अईल पधारे । और चाचाजी वा गजा
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