२१८ दोसौ घावन वैष्णवन की वार्ता मधुमदनदास कहे, जो-महाराज! आप के लायक एक सुंदर घोड़ा राज में है। सो आप उहां पधारो। और वह घोड़ा पसंद करो तो वह घोड़ा हों आप को भेंट करों। तव श्रीगुसांईजी कहे, जो-अब ही तो हमारो उहां आवनो वने नाहीं। तब मधु- सूदनदासने विनती कीनी, जो - महाराज ! आप आज्ञा करो तो घोड़ा मैं यहां लाउं । आप को भेट करों । और महाराज ! मोकों अपनो सेवक कीजिए । तब श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - अबही तो समय नाहीं । पार्छ काहू समै फेरि उहां पधारेंगे तब तुम को सेवक करेंगे। तब घोड़ा हू देखेंगे । तब मधुमदनदास कहे, जो-महाराज ! आप कदाचित न पधारे तो मैं कहा करों ? मेरो जन्म व्यर्थ जाई । तब श्रीगुसांईजी आप कहे, जो-हमारो वचन है । हम तोको निश्च सरनि लेंगे। पार्छ मधुसूदनदास श्रीगुसांईजी को दंडवत् करि घोड़ा खरीदिवे को गए। धार्ता प्रसग-१ पाछे एक समै श्रीगुसांईजी श्रीगोकुल तें लाहोर पधारवे कौ विचार किये। तव एक वैष्णव ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराज ! एक बेर तो पश्चिम देस कों पधारिये। तब श्रीगुसांईजी ने वा वैष्णव सों कह्यो, जो - हमारी तो पश्चिम देस की इच्छा नहीं है। परि एक बार पश्चिम देस में पधारेंगे ऐसो जान परे हैं। जो - मधुसूदनदास के अंगी- कारार्थ पधारनो परेगो तो सही। तब वा वैष्णव ने श्री- गुसांईजी कों बिनती कीनी, जो - महाराज! मधुसूदनदास ने तो घोड़ा बोहोत सुंदर सिद्ध करि कै राख्यो है। तब वा वैष्णव सों श्रीगुसांईजी ने कही, जो- तातें अवस्य पधारनो परेगो। ता पाछे श्रीगुसांईजी पश्चिम देस में पधारे । तब मधु- सूदनदास ने श्रीगुसांईजी सों बिनती कीनी, जो - महाराज! मोकों नाम सुनाइए । मेरो अंगीकार करिए। तब श्रीगुसां- ईजी ने श्रीमुख ते आज्ञा दीनी, जो तुम स्नान करि कै आवो। तब मधुसूदनदास स्नान करि कै आए। तब श्रीगुसांईजी ने
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