मधुसूदनदास क्षत्री, पश्चिम के झा तो दूसरे दिन आइ कै श्रीगुसांईजी आप सों विनती कोनी, जो-महाराजाधिराज ! मेरो अंगीकार करिये। तब श्रीगुसांईजी आप तो परम दयाल कृपा करि कै दामोदर झा को नाम सुनाए । तव और सव हुते सो कहन लागे, जो- तुम यह कहा कियो ? जो - हम सवन को तो तुम्हारो भरोसो हतो। सो तुमने तो नाम पायो ! तव दामोदर झा ने उनसों कह्यो, जो- "भाई! आटला दहाडा तो कोई जाण्यू नहीं, जो केवल छिलका कूटया । जे कंइ छे ते आज मारग छ ।" यह सुनि के और पंडित तो गए। पाछे दामोदर झा श्रीगुसांईजी आपके पास ही रहते । जो-बड़े ही पंडित हते। सो वे श्रीगुसांईजी आप की कृपा ते बड़ेई कृपापात्र भग- वदीय भए। तातें इनकी वार्ता कहां तांइ कहिए। वार्ता ॥१२७॥ अव श्रीगुसांईजी के सेवक मधुमदनदास, क्षत्री हुते, सो पश्चिम में रहते, तिनकी वार्ता को भाव कहत है- भावप्रकाश-ये तामास भक्त है । लीला में इन को नाम 'वीरवाला है। ये 'नीला' ते प्रगटी हैं। तातें इनके भावरूप हैं। ये पश्चिम में एक क्षत्री के जन्मे। सो वह क्षत्री राज में चाकर हतो। सो घोड़ा खरीदवे को काम करे । सो जब मधुसूदनदास बरस तेईस के भये । तब ते वह क्षत्री इन को अपने संग राखे । सो घोड़ा की पहचानि करावें । मो कहक दिन में ये घोड़ा को पहचानिवे लागे । पा. वह क्षत्री मरथो। तब मधुसूदनदास राज में चाकर रहे । सो एक समै यह थोड़ा खरीदवे को आगरा में आए । ता समै श्रीगुसांईजी आगरा में विराजत हुते । सो इन श्रीगुसांईजी के दरसन पाए । तत्र श्रीगुसांईजी आप पूछे, जो - तुम कौन हो ? कहा करत हो ? नव मधुसूदन- दास कहें, जो - महाराज ! मैं क्षत्री हूं। अमूके राज में चाकर हों। घोड़ा की पहचानि करत हूं। राज के लिये आठे आछे घोड़ा खरीदत हों । तब श्रीगुमाईजी कहे, जो - एक सुंदर घोड़ा हम को चहिए है, सो तुम हम को वरीट देश । तर
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