२१६ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता जो - यह मार्ग वेदमूलक नाहीं है । सो जव वडनगर के वैष्णव श्रीगोकुल आए, श्रीगुसांईजी के दरसन को तव सव वैष्णवन ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराजाधिराज ! वडनगर में एक दामोदर झा नागर वडनगरा है । सो आपकों वड़ो पंडित माने हैं। सो वैष्णवन को टीलआ कहत हैं। और यह कहत हैं, जो - यह मार्ग वेदमूलक नाहीं है । तात महा- राजाधिराज! याकों कछु कह्यो चाहिए। ता पाछे वैष्णव तो श्री- गुसांईजी आपके दरसन करि कै वडनगर अपने घर को आए। ता पाछे केतेक दिन में श्रीगुसांईजी आप द्वारिकाजी कों पधारे, श्रीरनछोरराइजी के दरसन कों। सो रनछोरराइजी के दरसन करि कै जव श्रीद्वारिकाजी तें पाछे फिरे तव श्रीगुसांईजी आप वडनगर पधारे । सो वडनगर में एक वैष्णव के घर उतरे। सो श्रीगुसांईजी आप भोजन करि कै गादी तकियान पर विराजे तव वैष्णव सव श्रीगुसांईजी आगे बैठे हते । तब श्रीगुसांईजी आप ने कह्यो, जो - इहां कौन कहत हैं, जो-ये मार्ग वेद मूलक नाहीं है ? जो-यह मार्ग श्रीआचार्यजी महाप्रभु ने प्रगट कियो है, सो सर्वोपरि है। भावप्रकाश--याको अभिप्राय यह, जो - और मार्ग में तो तीन प्रमानं कहे हैं। वेद, गीता, ब्रह्मसूत्र । परि या मार्ग में तो श्रीआचार्यजी ने चारि प्रमान माने हैं । वेद, गीता, ब्रह्मसूत्र, श्रीभागवत । तातें यह मार्ग सर्वोपरि है । जो जाकों कछु संदेह होइ सो आओ, मोकों पूछो। तब दामोदर झा आदि दे के सब पंडित आए । सो चर्चा भई । सो वाद-विवाद में सब पंडित निरुत्तर भए। तब सब पंडित श्रीगुसांईजी कों दंडवत् करि के अपने घर गए । पाछे दामोदर
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