२१० दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता वैष्णव ने एक सौ रुपैया कहे । तव मुगल पांच-सौ रुपैया ताई आयो। तव वैष्णव ने रिस करि के हजार रुपैया कही। तब मुगल हारि के चल्यो गयो । तव वैष्णव उह मेवा-फरोस कों सेठ के घर ल्याय के हजार रुपैया की थेली मेवा-फरोस कों निकारि दियो । सो मेवा-फरोस रुपेया लै चल्यो गयो। पाठे उह वैष्णव खरबूजालै के सागघर मेंधरयो। और हसगरो साग फलादि मेवा धरयो। पाछे राजभोग आर्ति को समै भयो । सो दोऊ जनें सेवा सों पहोंचि श्रीठाकुरजी कों अनोसर कराए। पाछे सेठ और विरक्त महाप्रसाद लइ वैठे । तव विरक्त ने कही, साग-फलादि लिखि लेहु । तव सेठ कह्यो, भले । पाछ उह विरक्त लिखान लाग्यो । सो सेठ लिखन लागे । सो सगरे साग लिखाय के मेवा लिखायो। मेवा लिखाय कै पार्छ फलादि लिखायो। तामें हजार रुपैया कौ खरबूजा एक विरक्तने लिखायो। सोजैसे सगरी सामग्री सेठ ने लिखी ताही भांति उह हजार रुपैया को खरबूजा हू सेठ ने लिख लीनो। यह नाहीं पूछ्यो, जो- हजार रुपैया एक खरबूजा को कौन भांति दीनो । सेठ के मन में यह निश्चय विश्वास है, जो वैष्णव करें सो सांची करेंगे । आछी करेंगे। ऐसो सरल सुभाव सेठ को हतो। पाछे सगरे साग लिख चूके तब दोऊ जनें एक घरी सोए । सो सिज्या मंदिर तें श्रीठाकु- रजी उठि कै सागघर में पधारे। सो उह खरबूजा हतो ताकों ले के अपने निजमंदिर में पधारे। खरबूजा सों खेलन लागे। पाछे उत्थापन सों दोइ घरी पहिले दोऊ जनें भगववार्ता करि कै उठे । यह नेम दोऊ जन को हतो। सेवा के समय सेवा करे । पाठे महाप्रसाद ले के दुपहर के दोइ घरी एक घरी
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