२०८ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता रूपचंदनंदा के घर नित्य जाँइ भगवद्वार्ता सुने । ता पाछे कळूक दिन में वह बनिया और वाकी स्त्री दोऊ मरे । तब वाको बेटा घर में अकेलो रह्यो। सो वाको व्याह तो भयो नाही हतो । सो वानें अपने मन में विचार कियो, जो-अब संसार में परनो उचित नाहीं। प्रभुन ये सुंदर देह दीनी है। सो तो उन की सेवा के ताई दीनी है । तातें भगवत्सेवा करनी। सो बहोरि श्रीगुसांईजी आगरा पधारे तव या सेठ ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो-महाराज ! कृपा करि मोकों भगवत्सेवा पधराइ दीजिए। तो हों सेवा करों । मेरो यह मनोरथ है। वार्ता प्रसंग-१ सो उह सेठ के माथे श्रीमदनमोहनजी की सेवा श्रीगुसां- ईजी ने पधराई । सो उह सेठ के द्रव्य वोहोत हुतो । सो उह सेठ राजसेवा करतो । सो उह सेठ को चाकर हतो । सो साग फलफलाहरी आली नाहीं ल्यावतो । सो सस्ती लेतो। जामें पैसा थोरे लगें, वस्तु वोहोत आवे । सो उह सामग्री आछी नाहीं आवती । सो उह सेठ नित्य अपने मनुष्य सों कहतो, जो - तू आछी सामग्री उत्तम ते उत्तम क्यों नाहीं ल्यावे ? पैसा अधिकी लागें तो मेरे लगेंगे। तू उत्तम तें उत्तम ल्याइओ। या प्रकार सेठ नित्य कहे । परंतु उह मनुष्य के मन में आवे नाहीं। सो सेठ ने मन में विचारो, जो - या मनुष्य को सेवा में काम नाहीं। सेवा में कोई वैष्णव होइ तो सामग्री उत्तम आवे । सो उह गाम में एक वैष्णव चुकटी मांगतो। सो मध्यान्ह के समै सेठ के घर चुकटी लेन आयो । तब सेठ ने वैष्णव सों बिनती करी, जो - वैष्णव एक दुःख मेरे है । सो मैं तुम सों कहत हों। तुम्हारो मन प्रसन्न होइ तो मानियो । तब उह वैष्णव ने कही, तुम कहो। मोसों बनेगो सो मैं करूंगो । तव सेठने कही, मेरो चाकर है, सो सागफल मेवा आछौ बजार तें
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