पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२२०

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राजा आसकरन, नरवरगढ के २०३ कों आज्ञा कीनी, जो - आसकरन ! सेन समे पोढायवे के कीर्तन तुम करियो। चले मति जैयो । सो संध्याति को दरसन आसकरन करि कै जगमोहन में बैठे रहे । सो पाठें सेनभोग आयो । तव आसकरन कों ब्रजभक्तन की सहचरिन कौ दरसन भयो । सो सहचरी सव श्रीठाकुरजी सों प्रार्थना करति हैं, जो- हमारी स्वामिनी सगरी सामग्री सिद्ध निकुंज में करि राखे हैं, सो तुम पधारि कै मनोरथ पूरन करो। यह सगरो अनुभव आसकरन को भयो। तब सेन समय केदार राग में आसकरन ने यह कीर्तन गायो- राग : केदारो तुम पौढो हो सेज वनाऊं। चाँपों चरन रहों पाटीतर मधुरे सुर केदारो गाऊं । सहचरी चतुर सवे जुरि आई दंपति सुख नैनन दरसाऊं। 'आसकरन’ प्रभु मोहन नागर यह सुख स्याम सदा हों पाऊं । यह कीर्तन आसकरन ने गायो। सो सुनि कै श्रीगुसांईजी वोहोत ही प्रसन्न भए । पाछे श्रीगुसांईजी श्रीनवनीतप्रियजी कों पौड़ाय अनोसर कराय के अपनी बैठक में पधारे । तब आस- करन ने दंडवत कीनी । तव श्रीगुसांईजी आसकरन तें कह्यो, जो - भलो कीर्तन गायो । तव आसकरन ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराजाधिराज ! आपु कृपा करि के मोकों सेन समय को अनुभव करायो । तव में कीर्तन गायो । तव श्रीगुसांईजी श्रीमुख सों आजा किये, जो - पोढवे के समय दोय कीर्तन तुम नित्य करियो । ता दिन तें आसकरन सेन समय के कीर्तन करते । एक मान को, एक पौढिवे की।