१५ एक क्षत्री वैष्णव, जिनको आत्मनिवेदन करवाया आयो। तव श्रीगुसांईजी के दरसन करे, साप्टांग दंडवत् करयो। पाळे सब वैष्णवन ने श्रीनवनीतप्रियजी के दरसन करे। पाळं सव वैष्णव श्रीगुसांईजी के दरसन को आए । सो दरसन करि दंडवत् करि बैठे। ता पाछे श्रीगुसांईजी आप भोजन कों पधारे । सो भोजन करि मुख सुद्धार्थ आचमन करि ता पाछे प्रसादी वीरा आरोगि कै पाछे श्रीगुसांईजी आपनें सब वैष्णवन कों महाप्रसाद की पातरि पठाई । सो सव वैष्णवन को महा- प्रसाद लिवाए । ता पाछे श्रीगुसांईजी आप पोंढे । सो छिनक विश्राम करि कै जागे । सो उत्थापन ते पहिले जागे । सो कथा कहन लागे । तव और हू वैष्णव वेठे हते । तव वह क्षत्री वैष्णव हू कथा में बैठयो हतो । ताही समे श्रीगुसांईजी आपने आत्मनिवेदन को प्रसंग चलायो। तामें कह्यो, जो-सुद्ध मन पूर्वक जो जीव आत्मनिवेदन करत है । और गुरु जो मुद्ध मन पूर्वक निवेदन करावत है। तिनकों श्रीआचार्यजी महा- प्रभुजी की कृपा तें दृढ आश्रय तत्काल होंइ । और अलौकिक .(वस्तू) हू दृढ होई । और पुष्टिमार्ग की लीला को दान होइ। और मारग को सव अनुभव होई । और अलौकिक दृष्टि होई। तव या क्षत्री वैष्णव ने मन में विचार कियो, जो- श्रीगुसां- ईजी आप कृपा करें तो मैं आत्मनिवेदन करों । पाठें श्रीगु- सांईजी उत्थापन किये । पाछ सेन पर्यंत की सेवा पहात्रि के माला वीरा लेके श्रीनवनीतप्रियजी के मंदिर को दंडवत् करि के श्रीगुसांईजी वाहिर पधारे । पाठे श्रीगुसांईजी आप भोजन करिकै इकेले ही गादि तकियान के ऊपर विराजे हते । तब वा क्षत्री वैष्णव ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी. जो-
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