राजा आसकरन, नरवरगढ़ के '१९९ धोवंती-उपरेना एक, पहरि कै घर तें निकरे । पाठे मनमें आस- करन ने विचार कियो, जो- श्रीगुसांईजी या भांति देखि कै कहूं मेरे उपर खीझे तो मैं कहा करूंगो ?. यह सोच मन में भयो । तव श्रीठाकुरजी श्रीगुसांईजी सों कहें, जो- आस- करन सगरो त्याग करि कै श्रीगोकुल आवत हैं । ताके ऊपर कछु खीझियो मति । तव श्रीगुसांईजी कहे, जो-तुम्हारी आज्ञा है सोई हम को कर्तव्य है। पाछे दिन दोई चारि में आसकरनं आय कै दंडवत् किये । तव श्रीगुसांईजी देखि के आसकरन सों कहे, आसकरन भली कीनी । मेरे मन में यही हुती, जो - आसकरन आवे तो आछौ है । सो अव तुम ऐसी भांति आए, जो-अब देस में जानो नहीं परेगो। और.श्रीठाकुरजी कों पधरावो। तव आसकरन मन में प्रसन्न होइ के कह्यो, जैसी आपकी आज्ञा होइ । ता प्रकार हमें करनो। पाठे खेल के ठाकुर हते तहां आसकरन के ठाकुर को श्रीगुसांईजी ने पधराए । पाजें आसकरन के ठाकुर के मंदिर को द्रव्य हतो । सो दीवान ने हुंडी करि कै लाख रुपैया की हुंडी, तामें पचास हजार मंदिर की, पचास हजार राजा के खजाना को हतो सो पठायो । तव श्री- गुसांईजी मंदिर को द्रव्य हतो सो तो पचास हजार श्रीनाथजी के इहां सोने के थार, कटोरा, डबरा करि पठाए । भावप्रकाश-याम यह जताए, जो - प्रभुन को द्रव्य अपने कार्य में नहीं लावनो । लावें तो बहिर्मुखता प्राप्त होई । और पचास हजार आसकरन की सत्ता को हतो, सो आपु अंगीकार किये । पाठें आसकरन एक दरसन श्रीनवनीतप्रियजी कौ और अपने ठाकुर को करि जाते । पाछे रमनरेती के पास
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