१९४ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता आनंद पावते । पाछे अनोसर में विप्रयोग क्लेस को अनुभव करते । और मानसी सेवा हू नित्य करते । ऐसें करत करत कछ दिन वीते । तव दक्षिन को राजा आसकरन के ऊपर चढ़ि आयो, राज के लिये । सो आसकरन ने सुनी तव कही, भली भई, मैं आपुही ते राज छोरत हतो। सो यह राजा आयो है ताकों राज दे के मैं श्रीगोकुल जाय वैठोंगो। यह मन में विचारि कै दीवान सों आसकरन ने कही, जो-तुम कछू लरिवे की तैयारी मति करियो । या राजा को राज देनो। अपने भाज चलेंगे । तब दीवान ने कही, यह वात आछी नाहीं है। पाछे तुम बड़े हो, राजा हो, कहोगे सो करूंगो। पाठें रात्रि को आसकरन को नींद आई । तव श्रीठाकुरजी ने कही, जो- आसकरन ! तू. भाजिवे की विचारी है सो मोकों आछी नाहीं लागी । मैं कैसें भाजूंगो ? तातें तू लरिखे जा। भावप्रकाश--यामें यह जतायो, जो - भक्त की लाज जाई सो मोकों सुहाय नाहीं । तातें. सूरदासजी गाए हैं -. 'भक्तन के जीते हों जीतों भक्तन हारे हारों।', तब आसकरन ने कही, जो.- महाराज ! तुम्हारी सेवा बिना कैसे रहूंगो ? यह सुनि कै श्रीठाकुरजीनें कही, जो-तू मानसी सेवा करेगो सो मैं मानि लेहोंगो। और भीतरिया मेरी सेवा करेंगे। तू लरिवे को जइयो । यह सुनि के आसकरन उठे । सो अर्द्धरात्रि समय दीवान को बुलाय कै कह्यो, जो- लरिवे की तैयारी करो। काल्हि दुपहर पाछे मैं हूं चलंगो। यह सुनि के दीवान बोहोत प्रसन्न भयो। सो सगरी फौज की तैयारी प्रातःकाल करी । पाछे प्रातःकाल उठि के देहकृत्य करि
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