पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२०४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजा आसकरन, नरवरगढ़ के १८९ चलों। श्रीगोवर्द्धन होइ तो श्रीगोवर्द्धन चलों । सो श्रीगुसांईजी श्रीगोकुल हते । सो मनुष्यने आसकरन को खवरि करी, जो श्रीगुसांईजी श्रीगोकुल में विराजत हैं । तव आसकरन तान- सेन को लेकै श्रीगोकुल आए । सो राजभोग-आरति श्रीनव- नीतप्रियजी की श्रीगुसांईजी ने करी। सो आसकरन दरसन करि के मन में वोहोत प्रसन्न भए । सो वा समय गोविंदस्वामी यह पद गावत हते। राग : सारंग श्रीवल्लभनंदन रूप अनूप स्वरूप कह्यो नहीं जाई । यह कीर्तन सुनि के आसकरन बोहोत प्रसन्न भए। तब तानसेन ने कान में कह्यो, जो - गोविंदस्वामी येही हैं। परंतु अव ही वोलियो मति । पाछे अनोसर भयो। तव आसकरन और तानसेन श्रीगुसांईजी की बैठक में आय वैठे । पाछे श्री- श्रीगुसांईजी श्रीनवनीतप्रियजी को अनोसर कराय के पाछे बैठक में पधारे । गोदी तकिया पर विराजे तव आसकरन और तानसेन ने दंडवत् करी । पाठे तानसेन ने विनती श्री- गुसांईजी सों करी, जो - महाराजाधिराज ! आसकरन आये हैं। नाम पाइवे की विनती करत हैं। पार्छ आसकरन ने साष्टांग दंडवत् करि कै विनती करी. जो-महाराज ! जब ते जन्म्यो हं तव ते सदा पापाचरन किये हों। कवह भलो करम नाहीं कियो । राज पाछे नर्क सास्त्र में कहे हैं। सो मुनि के बोहोत भय पाय आप की सरन आए हों । मोकों दीन जानि के अपनी सरनि राखो। मैं राजमद में कबहू कछ साधन नाहीं किये हैं। सो अब मेरी रक्षा करो। यह सुनि के श्रीगुसांईजी