दोसौ पावन वैष्णवन की वार्ता कहा कहूं ? महा अलौकिक ही है। श्रीठाकुरजी को निजधाम है। पाछे वह वैष्णव ब्रज की मानसी करतो। सो श्रीठाकुरजी वाको अनुभव जतावन लागे। भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो - वैष्णव को प्रभुन पर विश्वास राखनो । काहू वस्तू पर ममता राखनी नाहीं। सब वस्तू-पदार्थ प्रभुन की ईच्छा सों आय मिलत हैं। तातें प्रभुन पर मरोंसो राखनो । सो वह श्रीगुसांईजी को ऐसो कृपापात्र भगवदीय भयो । तातें इनकी वार्ता कहां तांई कहिए। वार्ता ॥ १२२॥ अब श्रीगुसांईजी के सेवक आसकरन, नरवर (गढ) के राजा, तिनकी वार्ता कौ भाव कहत है भावप्रकाश-ये राजस भक्त हैं। लीला में इनको नाम 'विकला' है। सो विकला श्रीदामा सखा की सङ्गिनी हैं। ये 'नागरी' ते प्रगटी है, तातें उनके मावरूप हैं। वाता प्रसंग-१ सो आसकरन को प्रथम राग पर वोहोत आसक्ति हुती । सो देस देस के कलामत गवैया आसकरन के पास आवते । सो आसकरन सब को समाधान करते । जहां लों रहते तहां ताई सीघो सामान पहोंचावते । पाठें जब चलते तब विदा हू आछी करते । सो दोइसैं-चारसैं गवैया सदा आसकरन के पास गाइवे को रहते। सो एक दिन तानसेन ने आसकरन की बड़ाई सुनी । सो मनमें विचारयो, जो- एकवार आसकरन के पास जाइ देखों, आसकरन कछु समुझत हैं ? यह विचार कै तानसेन आसकरन के उहां गए । सो मध्याहन समय राजा अपनी कचहरी में बैठो है। दसबीस भले भले गवैया गावत हैं, सारंग के पद । ज्येष्ठ
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