दो भील, द्वारिकाजी के मारग में रहते १७९ ईजी सों विनती कीनी, जो-महाराजाधिराज! अव आप हम ऊपर कृपा करि कै हम को अपने सेवक करो। तब श्रीगुसां- ईजो कहे, जो-तुम स्नान करि आवो तो तुम को सेवक करें। तव वे दोऊ भील जाँइ स्नान करिआइ, हाथ जोरि, श्रीगुसां- ईजी के सन्मुख ठाढ़े भए । तव श्रीगुसांईजी आप उन ऊपर कृपा करि कै उन दोऊ भीलन को नाम सुनाय सेवक किये । पाछे श्रीगुसांईजी द्वारिकाजी होंई श्रीरनछोरजी के दरसन करि कै श्रीगोकुल पधारे । तव वे दोऊ भील श्रीगुसांईजी के साथ चौकी पहरा देत आए। तहां श्रीगोकुल में वे दोऊ भील सातों स्वरूपन के और श्रीवल्लभकुल के दरसन करि श्रीयमु- नाजी स्नान करि कै अत्यंत प्रसन्न भए । पाछे वे कछुक दिन श्रीगोकुल में रहि कै श्रीगुसांईजी सों विनती किये, जो-महा- राजाधिराज ! हमारे मन में ब्रजयात्रा और श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन की ईच्छा है। सो आप आज्ञा देहु तो हम जाई । तव श्रीगुसांईजी आप उन सों दोऊ भीलन सों यह आज्ञा किये, जो-बोहोत आछो, करि आवो । पाछे वे दोऊ भील श्रीगु- सांईजी की आज्ञा पाय के चले । सो वनयात्रा परिक्रमा करत वे दोऊ भील श्रीगिरिराज आए । तहां परवत उपर जाई श्री- गोवर्द्धननाथजी के दरसन किये । तव तो वे दोऊ अपने मनमें अत्यंत प्रसन्न होइ कै कहे, जो-धन्य हमारे भाग्य हैं, जो- श्रीगुसांईजी आप की कृपा ते हमकों ऐसें सुख के दरसन भए । नाहीं तो हम तो महादुष्ट दुर्बुद्धि हते । हम को या सुख को दरसन कहां हुतो ? पाळे वे दोऊ भील वनयात्रा करि श्रीगो- वर्द्धननाथजी के दरसन करि श्रीगोकुल आय श्रीगुसांईजी कों
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