एक क्षत्रानो, आगरे की १७७ होइ तव कहे, जो-चारि पोनी कांति लेऊ । फलानी तें मिलि आऊं । ऐसें नित्य वह क्षत्रानी श्रीलालजी की सेवाको अवेर करे । सो वहोरि श्रीगुसांईजी आगरे पधारे । तव श्रीठाकुरजी श्रीगुसांईजी सों कहे, जो-यह क्षत्रानी कौ मन लौकिक में वोहोत है । पाछे वह क्षत्रानी रात्रि को श्रीठाकुरजी कों पोंदाय कै श्रीगुसांईजी के दरसन को आई । तब श्रीगुसांईजी वह क्षत्रानी सों कहे, जो-तोसों श्रीठाकुरजीकी सेवा न वनि आवत होइ तो हमकों श्रीठाकुरजी पधराइ दे । तू अवेर वोहोत काहे कों करत है, लौकिक कार्यमें ? तब वह क्षत्रानी श्रीगुसांईजी सों विनती करि के कही, जो - महाराजाधिराज ! अव तें मैं बेगि ही कियो करोंगी। पाछे फेरि वह क्षत्रानी अवेर करन लागी । तव श्रीगुसांईजी ने आगरे के वैष्णवन सों कही, जो- फलानी बाई के घर श्रीठाकुरजी हैं । सो तिनकी तुम सेवा करियो। तव उन वैष्णवन श्रीगुसांईजी सों कही, जो-महाराज! वह वाई हम को अपने श्रीठाकुरजी की सेवा कैसे करन देइगी ? तव उन सव वैष्णवन सों श्रीगुसांईजी कहें, जो-प्रभु कछु दिन में वह वाई पास सेवा न करावेंगे। उद्वेग ते प्रतिबंध होडगो । भावप्रकाश-याको अभिप्राय यह है, जो - सेवा में तीन वस्तू बाधक हैं। उद्वेग, प्रतिबंध अरु भोग। सो उद्वेग तें प्रतिबंध होत हैं । और प्रतिबंध तें लौकिक भोग प्राप्त होत हैं । तातें दैवी जीवन को यह तीनों बुद्धिपूर्वक त्याग करने । सो वात श्रीआचार्यजी महाप्रभु आप 'सेवाफल' के 'विवरण' में विस्तार सों कहे हैं। ता पानें कछुक दिन पीते । पाछे एक दिन सवेरो भयो। घरी दोइ दिन चढ़यो। तव वह क्षत्रानी चरखा कांतत हुती। सो ऊपर तें वाके उपर भीति गिरी । तासों दोऊ हाथ वाके टूटि २३
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