१७४ दोसौ वाचन वैष्णवन की वार्ता . - वुलाइ ल्याउ । तव गोहनी ने श्रीठाकुरजी सों कयो, जो - महाराज ! मोते आप को वियोग सह्यो जात नाहीं । तातें आप और काहू को पठावो तो आछौ । हों तो टेंटी विनन के मिप सास-ननद तें दुराय के आप के दरसन को वन में आवति हों । तातें या भेद को कोऊ जानें तो मेरो वन में आवनो बंद होई । तो आप के दरसन विना मेरे प्रान रहे नाहीं । तात महाराज मैं पराधीन हों । तब ठाकुर ने सुबल सखा को बुलाई कै कह्यो, जो - तू 'श्रीदामा' को वेगि बुलाय ल्याऊ । आज एक नयो खेल खेलेंगे। सो सुबल सखाने जाइ कै श्रीदामा सों कह्यो, जो - तू वेगि चलि । आज एक नयो खेल होइगो । सो श्रीदामा वेगि वेगि आय श्रीठाकुरजी को दंडवत् कियो । पाठे खेल भयो । सो ठाकुर तो श्रमित भए । तव गोहनी वन में ते मधुर फल ल्याई सिद्ध किये । पाछे पतौवान के दोना करि तामें ले आई । और कहो, जो - महाराज ! आरोगिए । सो विनती करत मुख तें छींटा उडयो । सो सामनी में परयो । सो वा वात को गोहनीने नानी नाहीं । सो छींटा उरत श्रीदामाने देख्यों । तब श्रीदामाने गोहनी तें कह्यो, जो-दारी ! तु अपनो झूठो ठाकुर को अरोगावति हैं ? जा म्लेच्छ योनि को प्राप्त होऊ । तव गोहनी डरपि के ठाकुरकों विनती करन लागी, जो-महाराज ! हों तो जानी नाहीं । सो मेरो अपराध क्षमा करो। तब ठाकुरने कह्यो, जो - अनजान तें अपराध भयो । परि ये श्रीदामा की यानी मिथ्या कैसे होंई ? तातें म्लेच्छ योनि तो प्राप्त होइगी । पाछे तेरो उद्धार होइगो । सो वह महावन तें उरे कोस वीस पर एक गाम है, तहां एक म्लेच्छ के जन्म्यो । सो ये वरस अठारह को भयो तव याके माता-पिता मरे । ता पानें वह म्लेच्छ के एक काका हतो । सो महावन में रहतो । सो ताके घर आइ रह्यो। वार्ता प्रसंग-१ सो एक समै श्रीगुसांईजी आप रमनरेती' पधारे है। तहां आप एक वैष्णव के लरिका को अष्टाक्षर सुनावत हते । सो नाम सुनाइ सेवक किये । तहां यह म्लेच्छ सूकी लकरी तोरन कों आयो हतो । सो वाकों श्रीगुसांईजी को दरसन भयो । सो महा अलौकिक दरसन भयो। तब वह म्लेच्छ अपने मन में बिचारयो, जो - मैं हूँ इनको सेवक होउं तो आछौ । सो वह
पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१९१
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।