पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१८७

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घार्ता प्रसग-२ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता हों। ता पाछे जनार्दनदास चोपड़ा कोई कामकाज होंइ सो करि आवते । तब श्रीबालमुकुंदजी आपु कहते, जो - जनार्दनदास ! आयो ? जो-ऐमें श्रीवालमुकुंदजी आपु जनार्दनदास की देह चली तहां पर्यंत ऐसे ही किये । सो ऐसें करत वोहोत दिन भए। ता पाछे जनार्दनदास की स्त्री मूई । ता पाछे वे श्रीगुसां- ईजी आप के घर आय कै रहे । और जनार्दनदास के और माधवदास कपूर सों मित्राई हती। सो माधवदास ने जनार्दनदास सों कह्यो, जो - जनार्दन- दास ! तुम को श्रीगुसांईजी की आज्ञा है, सो जनार्दनदास ! तुम और विवाह करो। तव जनार्दनदास ने यह कही, जो- माधवदास ! सुनि भाई। तु भी सेवक और मैं भी सेवक श्री- गुसांईजी आप के हैं। सो श्रीगुसांईजी तोकों हू जानत हैं। और हम कों हू जानत हैं । सो जो तोकों आज्ञा दिए हैं तो मोकों हु आज्ञा श्रीगुसांईजी आपु क्यों नाहीं दीनी। तातें मैं कैसे विवाह करों ? जो - उन की इच्छा नाहीं है। और उन की इच्छा होइ तो तोकों कयो तो मोकों ही कहते । कहते कहा बेर लागत हैं ? यह बात सुनि कै माधवदास चुप करि रहे। सो ऐसें ही रहे, परि विवाह नहीं कियो । पाछे जहां पर्यंत जनार्दन- दास की देह चली तहां पर्यंत सेवा करी । सो वह जनार्दनदास श्रीगुसांईजी आप के ऐसे टेक के कृपापात्र भगवदीय हते । जो-जिन के ऊपर श्रीगुसांईजी आप सदा प्रसन्न रहते । वे जनार्दनदास आपु की सदा आज्ञा में रहे। भावप्रकाश-या वार्ता कौ अभिप्राय यह है, जो - वैष्णव को लौकिक में आसक्ति सर्वथा न राखनी । एक प्रभुन में स्नेह राखनो। उनकी सेवा करनी।