जनार्दनदास क्षत्री, आगरे के १६७ किये । पाछे थोरे से दिन रहि कै श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो-राज की आज्ञा होइ तो सूरत जाँय । तब श्री- गुसांईजी ने प्रसन्नता पूर्वक इनकों विदा किये । ता पार्यो श्रीगुसांईजी सों विदा होइ कै वे अपने घर सूरत को गए। पाछे भलि भांति सों सेवा करन लागे । दोऊ भाई सिंगार करते । दोऊन की स्त्री सामग्री करती। दोऊन के वेटान की बहू उपर की परचारगी करती। तीन्य बेटा व्यौहार-सेवा करते। सो राजभोग पर्यंत की सेवा कर के वैष्णव चारि पांचन कों महाप्रसाद लिवावते । पाछे भगवद्वार्ता मंडली में जाते । या प्रकार भली भांति सों सेवा करते । और सुंदर वस्त्र और भेंट श्रीगुसांईजी को प्रतिवर्ष पठावते । सो या प्रकार सदा भगवद- सेवा, गुरु सेवा, वैष्णव सेवा करते । श्रीठाकुरजी सानुभावता जनावते। भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो - सेवा समान और कोई फल नाहीं । तातें वैष्णव को सेवा ही में मन लगावनो। और सेवा भय प्रीति पूर्वक करनी । तो प्रभु तत्काल प्रसन्न होई । सो वे वेनीदास दामोदरदास श्रीगुसांईजी के ऐसें परम कृपापात्र भगवदीय हते । तातें इनकी वार्ता को पार नाही, सो कहां तांई कहिये ? वार्ता ॥११५॥ अघ श्रीगुसांईजी के सेवक जनार्दनदास क्षत्री, आगरे के, तिनकी वार्ता को भाष कहत है भावप्रकाश-ये राजस भक्त हैं । लीला में इन को नाम 'चपला' है। ये विसाखाजी की सखी सौरसेनी हैं, उन तें प्रगटी हैं । तातें उनके भावरूप हैं। सो जनार्दनदास आगरे में एक चोपडा क्षत्री के जन्मे । सो वह क्षत्री चौहोत भलो मनुष्य हुतो । वाके पास द्रव्य हू बोहोत हुतो । सो वा क्षत्री के घर
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