की कृपा १६६ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता मांगो तब इन श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो-कृपानाथ ! हमारो तो अव वैष्णवन की सेवा करिव को मनोरथ है। भावप्रकाश-याको अभिप्राय यह है, जो - वैष्णवन की सेवा अत्यंत दुर्लभ है । ठाकुर को, गुरू को दास होंई सेवा करे । परन्तु वैष्णवन को दास वैष्णवन की सेवा होनी बोहोत कठिन हैं । सो तो जब प्रभुनकी, गुरुन होई तबही सिद्ध होई । तातें इन दोऊ भाई श्रीगुसांईजी पास यह माँगे । तब श्रीगुसांईजी ने कही, जो - सुखेन करो। पाठे श्री- ठाकुरजी की सेवा करते, और नित्य दोइ वैष्णवन को महा- प्रसाद लिवावते । सो अव पांच वैष्णवन को महाप्रसाद लिवा- यवे लगे। सो नित्य एक नयो वैष्णव न्योते । और नित्य नौतन सामग्री करते । सो थोरी थोरी रितु अनुसार सामग्री करते। अव या प्रकार श्रीठाकुरजी की सेवा, गुरु की सेवा, वैष्णवन की सेवा करते । सो बरस चारि पांच करी। तव वैष्णवन प्रसन्न भए । सो कहन लागे, जो-भाई ! इन दोऊ भाईन कों धन्य है । सो तीन्यो सेवा नित्य नेम पूर्वक करत हैं । तब ये दोऊ भाई बोहोत प्रसन्न भए । ता पाछे एक दिना श्रीगुसांईजी सों बिनती कीना, जो-राज की आज्ञा होइ तो सब कुटुंब कों यहां बुलाय लें । तब श्रीगुसांईजी ने कही, जो - भले । तब बेनीदास दामोदरदास ने अपनो सब कुटुंब सूरत तें बुलाय लियो । सबन श्रीगुसांईजी के दरसन किये । पाठें श्रीगुसांईजी सों बिनती करि के सबन को व्रत करवायो। पाठं ब्रह्मसंबंध करवायो । ता पाछे श्रीगुसांईजी सों आज्ञा माँगिकै श्रीठाकुरजी पधराय कै सबन मिलि कै ब्रजयात्रा करी। श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन किये । मनोरथ किये । पाछे श्रीगोकुल में आय के सातों स्वरूपन के सातों बालकन के श्रीगुसांईजी के मनोरथ
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