वेनीदास, दामोदरदास, दो भाई वनिया, सूरत के १६३ भावप्रकाश--या वार्ता में यह जतायो, जो - गुरुन के आरोगे पहिले सेवक को महाप्रसाद लेनो सर्वथा उचित नाहीं । ता पाछे श्रीगुसांईजी आप कथा कहन लागे। तब इन दोऊ भाईन ने आप के श्रीमुख ते कथा सुनी । पाछे बेनीदास दामोदरदास ने श्रीगुसांईजी सों विनती करी, जो - राज ! अब तो कृपा करि के ब्रह्मसंबंध करावो तो भलो है । तव श्रीगुसांईजी ने एक व्रत कराय के दोऊन कों श्रीनवनीत- प्रियजी के सन्मुख ब्रह्मसंबंध करवायो। पाछे श्रीनवनीतप्रियजी के राजभोग की आरति किये । पाछे अनोसर करि श्रीगुप्तां- ईजी अपनी बैठक में आइ बिराजे । तव इन भेंट करी। पाठे दोऊन विनती किये, जो- राज ! अब कहा आज्ञा है ? तव श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - श्रीठाकुरजी की सेवा करो। तब इन दोऊ भाईन विनती करी, जो- महाराज ! एक बार श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन करि कै ब्रजयात्रा करिए, ऐसो मनोरथ है । पाछे राज जो-आज्ञा करें सो करें । तब श्रीगुसांई- जी ने कही,जो- आछौ है। ब्रजयात्रा करि आऊ। पाछे सेवा करियो। तव दोऊ भाई तीनि दिना श्रीगोकुल में रहि कै पाछे श्रीनाथजीद्वार गए। सो दोइ चारि दिना श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन करि कै पाछे ब्रजयात्रा किये । सो संपूरन व्रजयात्रा करि कै श्रीगोकुल आए । तव श्रीगुसांईजी के दरसन किये । पाठे दंडवत् करी । तव श्रीगुसांईजी ने पूछी, जो-ब्रजयात्रा करि आए ? तब इन विनती करी, जो- राज की कृपा तें कोर आए । पाछे श्रीगुसांईजी ने कही, जो - अव सेवा करो । तव बेनीदास ने विनती करी, जो - महाराज ! सेवा तो तब करें
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