एक दलाल वनिया १५९ आछौ । तब श्रीगुसांईजी वाको नाम सुनाए । पाठे वह बनिया अपने घर गयो। सो दूसरे दिन अपनी स्त्री को ल्याय नाम दिवायो। ता पाछे श्रीगुसांईजी आप द्वारिकाजी कों पधारे । घार्ता प्रसंग-१ सो वोहोरि एक समै श्रीगुसांईजी आप गुजरात द्वारिका- जी श्रीरनछोरजी के दर्सनार्थ पधारे । सो मारग में राजनगर असावा में। भाईला कोठारी के यहां डेरा किये । सो मारग जात या वनिया कों दरसन भए । सो श्रीगुसांईजी के संग ही यह वनिया भाईला कोठारी के घर आयो। तव दुपहर ताई तो श्रीगुसांईजी की टहल में रह्यो। इतने में प्यास लगी। सो घर आयो। फेरि विचार भयो, जो-मैं खाली हाथन दंडवत् कैसे करूं ? तव स्त्रीने कही, जो-आज तो कछु कमाए हो नाहीं। कछू ल्याए नाहीं। तव कही, जो-कछु दे। तव इत में उत में देखे तो एक खोटो नारियल परयो है । तब कही, जो- यह लै जाऊ। तब वह खोटो नारियल लै कै चल्यो ! सो जाँय कै श्रीगुसांईजी के आगे भेंट धरि दंडवत करी । तब सब वैष्णवने कही, जो-महाराज! हमकों तो ठगे है । परि आप सों हू ठगविद्या लगाई है। तव श्रीगुसांईजी ने कही, जो- वैष्णव ! ये कहा कहत हैं ? तव वा दलाल ने कही. जो-वे साँच कहत हैं। जो - राज! मेरी गांठि में निन्यानवे हजार 'रुपैया हैं । सो लाख होइ तो मैं लखेश्वरी होऊ । सो चारि आना में तो निर्वाह करत हूं और आठ आना जमा करूं हूं। तब श्रीगुसांईजी आप वा पर प्रसन्न भए । वासों कहे. जो-यह साँच बोल्यो। अपनो भाव प्रगट कहि दियो। पाठे आप आज्ञा किये, अव तू श्रीठाकुरजी पधराय के सेवा करितो तेरो कारज सिद्ध
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