तानसेन गया १५५ वार्ता प्रसग- -१ सो एक समै उष्णकाल के दिन हते । सो श्रीगुसांईजी गोविंदघाट पै विराजे हते । तब गोविंदस्वामी आदि और हू भगवदीय पास वैठे हते । ता समै तानसेन श्रीगुसांईजी पास गायवे को आए । तव तानसेन कों देखि कै श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - तानसेन ! कछु कीर्तन गाउ । तव तानसेन ने एक पद गायो। सो पद- राग : लाछसाख तेरे मन में किलो एक गुनरे जो तो मैं आवे तो प्रकास कररे। सप्त सुर तीन ग्राम इकइस मूर्छना जोइ सुर आवे तोपे सोइ सुर भररे। हिरन बुलाये, पगन पराये, मेहा वरसाये तोकों सरस्वती वररे। कहे मियां 'तानसेन’ सुनेरे गुनीजन, सव गुनियन के पांयन पररे। सो यह पद सुनि कै श्रीगुसांईजी तानसेन को पात्साह को गवैया जानि रुपैया ५००) पांचसौ दिये। ता पर एक कोड़ी और दिये । तव तानसेन पूछ्यो, जो - महाराज ! यह कोड़ी काहेकों दीनी ? तव श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - तान- सेनजी! तुम पात्साह के गवैया हो । तातें तुम कों रुपैया पांच- सौ हम दिये हैं। और यह कोड़ी तो तुम्हारी वानी सुनि के दीनी है। तव तानसेन ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो- महाराज ! हम को आप कछु अधकी सुनाइए तब हम जानें, जो - आपने हमारी कीमत करी सो उचित है । नाँतरु हम कैसे जाने ? तव श्रीगुसांईजी आप मुसिक्याइ के गोविंद- स्वामी की ओर देखें । पाछे गोविंदस्वामी सों आज्ञा कीनी, जो - गोविंददास ! कछु कीर्तन गाउ । तव गोविंदस्वामी ने
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