दोसौ चावन वैष्णवन की वार्ता राखियो, और साँच बोलियो । तो तेरो कारज होइगो । तव चोर ने कही, जो - महाराज! आप सांची कही । जो-मेरो सुभाव चोरी करन कौ है । तातें चोरी किये विनु रह्यो जात नाहीं । परि आज पाछे बडी ठौर चोरी करूंगो । काहू गरीव को न सताऊंगो । और साँच वोलुंगो। तब श्रीगुसांईजी आप वा चोर को कृपा करि के दूसरे दिन नाम दे सेवक कियो। पाछे वह चोर श्रीगुसांईजी कों दंडवत् करि कै गयो । तव एक सहर में गयो । सो जव और ठिकाने चोरी करन कों गयो तब दया आई । सो पाछो आयो । फेरि एक राजा के यहां अर्द्ध रात्रि के समै गयो। तब जामा, मोती के कड़ा पहरि कै ड्योढ़ी पै गयो। तब ड्योढीवान ने पूछयो, जो- तुम कौन हो ? कहां जाऊगे ? तव वाने कह्यो, जो- मैं चोर हूं कहा तोकों सूझत नाहीं ? राजा के पास जाय रह्यो हूं। सो ड्योढीवान ने अपने मन में जाने, जो-ये चोर नाहीं। यह कोई खुसमसकरा है । काहेते, जो-चोर ऐसें कहे नाहीं जो- हम चोर हैं। तातें इनकों रोको मति । याही भांति वह सात ड्योढ़ी लांधि कै वह चोर जहां राजा रानी सोए हते तहां गयो। सो भीतर जाँइ जवाहरखाने के घर को ताला तोरि के वहां तें रानी कौ बंटा, गहना कों, लै कै ड्योढी पै आयो। तब डयोढी- वानने टोके, जो-तुम, कैसे गए ? और कैसें आए ? कौन हो? तब वाने कही, जो-मैं चोर हूं। राजा के पास गयो हतो। सो चोरी करि ले चल्यो। तोकों सूझत नाही ? सो ड्योढीवान ने जान्यों, जो-ये हमारी हाँसी करत है। कहूँ चोर ऐसें कहत होंगे? या प्रकार सब ड्योढीवान को उननें ऐसें कह्यो।
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