१५० दोसौ यावन वैष्णवन की वार्ता सरायो । तब वाने देख्यो तो साग को कटोरा दुरि धरयो है। तब वा बाई ने आचमन मुख वस्त्र करावत विनती करी, जो- राज! साग क्यों नाहीं आरोगे ? तव श्रीगुसांईजी ने कह्यो, जो-साग सम्हारत में तेरो चित्त कहां हतो? तव इन कही, जो-बेटा में हतो । तव आपने कही, जो-लौकिक में मन क्यों चलायो ? तातें साग नहीं आरोगे । ऐसें वानी होई । जैसे आकास-बानी। ऐसें ऐसें कोई दस वेर जताए। और सामग्री में कछु चूक परे, खारो खाटो होइ, तव दूसरे दिन विनती करती। तब आप आज्ञा करते, जो-तुमने महा- प्रसाद लीनो के नाहीं लीनो ? तव वह कहती, जो - राज! लीनो। तब आप आज्ञा करते, जो-खवरिन परी। ऐसें साक्षात् बानी होई । पाठे केतेक दिन में बेटा आयो । सो द्रव्य ले आयो। पाठें वे या प्रकार मिलि कै सेवा भलीभांति सों दोऊ मा बेटा ब्राह्मन वैष्णव सेवा करन लागे। श्रीगुसांईजी आप सानुभावता जनावन लागे। भावप्रकाश--यह कहि यह जताये, जो- सेवा 'यथा देहे तथा देवे' या प्रकार मन लगाय के सावधानी सों करनी। तातें वे दोऊ मा-बेटा श्रीगुसांईजी के ऐसें कृपापात्र भग- वदीय है । जिनने श्रीगुसांईजी को बानी को स्वरूपात्मक करि जानी। और भावात्मक सेवा कीनी । तातें इनकी-वार्ता को पार नाहीं, सो कहां तांई कहिए । वार्ता ॥११॥ अव श्रीगुसांईजी को सेवक एफ चोर, दिल्ली में रहतो, तिनकी वार्ता को भाष कहत हैं- भावप्रकाश-ये तामस भक्त हैं। लीला में इनको नाम 'तुरंगा' गोप है। सो' मनसुखा' तें प्रगटयो है, तातें उनके भावरूप हैं। --
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