मा बेटा ब्रायन, जिननें श्रीगुसांईजी की सेवा कीनी १४९ तें आरोगत हैं और आप श्रीमहाप्रभुजी की कानि तें तथा आपकी कानि आप राखि कै आरोगोगे । ता पाछे भोग समर्पि कै वाहिर आए । कीर्तन करन लागे । सो श्रीगुसांईजी आप कृपा करि कै आरोगिवे कों पधारे । सो भली भांति सों आरोगे । पाछे समय भयो भोग सरायो । आचमन मुखवस्त्र वीड़ा सव विधिपूर्वक किये । आति, घंटा, झालर, कछु नाहीं । पाछे अनोसर करि कै वह महाप्रसाद और पाचन में ठलाय कै पात्र मांजि के ठिकाने धरि के मंदिर की सव सेवा पहोंचि के गाँइ की पातरि दीनी । पाठे महाप्रसाद लेवे बैठे। सो महाप्रसाद अत्यंत अलौकिक स्वाद भयो । जो - साक्षात् श्रीगुसांईजी आरोगे, सो क्यों न होंड ? सो या भांति नित्य सेवा करें । और समय पर कोई अचानक वैष्णव आवे तो उन को महाप्रसाद लिवाय कै विदा करि देते। कोइ को रहिये न देई । या भांति करते। ऐसें करत द्रव्य तो थोरो सो रह्यो। तव बेटा ने अपनी मा तें कह्यो, जो-द्रव्य तो थोरो रह्यो । द्रव्य विना सेवा न बने । तातें तुम कहो तो एक वरस दिना परदेस करि कै द्रव्य ले आउं। तव मा ने कही,जो-सेवा छटि जाइंगी । तव वेटा ने कही, जो-तुम सेवा जैसें होत हैं तैमें नित्य करियो। एक बरस में चाहे तैसें करि के आइ जाउंगो। तव मा ने कही, जो-आछो । पाछे वेटा तो परदेस गयो । और मा वेसें ही सेवा करें । सो एक दिना साग सम्हारत मन में ऐसी आई, जो-वेटा आवे तो सेवा में सहायक होई । पाठे सामग्री सिद्ध करि के भोग सम । तव श्रीगुसांईजी ने साग की कटोरा सरकाय दीनो । सो वा वाई ने कीर्तन करि.समय भयो तब भोग
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