१३४ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता गुसांईजी सों विनती कीनी, जो-महाराजाधिराज ! आप कृपा करि जनावोगे तब मैं जानोंगो। ऐसें वचन कल्यान भट के सुनि के श्रीगुसांईजी आप बोहोत प्रसन्न भए । सो वे कल्यान भट श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपापात्र भगवदीय हते। वार्ता प्रसग-१ वार्ता प्रसंग-५ और एक समै श्रीगुसांईजी जलघरा में स्नान करत हते। इतने में राघौदास ने माला मांगी। तव श्रीगुसांईजी आय के हांडी धरि कै पाठे अपने कंठ सों माला उतारिवं लागे। तैसें माला परस्पर उरझि गई । तव कल्यान भटने श्रीगुसांईजी सों बिनती कीनी, जो-महाराजाधिराज ! माला विनती करत है जो-आप मोकों श्रीकंठ तें काहे को उतारत हो ? तव श्री- गुसांईजी आप बोहोत ही मुसिकाए । और एक समै कल्यान भट ने श्रीगुसांईजी आप सों बिनती कीनी, जो-महाराजाधिराज ! श्रीप्रभुजी के उत्तम भगवदीय कृपापात्र होंइ सो तिन के लक्षन कैसे हैं ? आप कृपा करि कहिये। तब श्रीगुसांईजी आप कल्यान भट सों कहे, जो- उत्तम भगवदीय वैष्णव के लक्षन तो यह हैं, जो-सदा सब के ऊपर कृपा राखे । कोई भगवदीय वैष्णव के उपर क्रोध नाहीं करे । जो-भगवदीय वैष्णव के ऊपर द्रोह नाहीं करनो । जो- कदाचित कोई भगवदीय वैष्णव को अपराध परयो होइ तिन सों क्रोध नाहीं करे । और तिन को अपराध सहनो। भगवदीय वैष्णव जो क्रोध में दुर्वचन बोले तो अपनो अपराध माने । परंतु तिन के बचन सुनि के मन में बिगारे नाहीं । जो-करे
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