१३३ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता सूरत पठायो हतो, सो पत्र तथा हुंड़ी तीसरे दिन ले आयो है। तब श्रीगुसांईजी पत्र वांचि के देखे तो तामें वैष्णवन ने समाचार लिखे हते सो सब जाने। तव वा ब्रजवासी को श्रीगुसांईजी ने बुलाइ कै सब बात पूछी। तव वा ब्रजवासी ने कही, जो-अरे भैया विट्ठलनाथ ! तू मेरो कह्यो न मानेगो । तुम्हारे परे सों पूंछो । वह मेरे साथ गयो हतो। तब श्रीगुसांईजी वा ब्रजवासी सों पूछे, जो- अरे भैया ! परे कौन है ? तव वा ब्रजवासी ने कह्यो, जो- ता दिन तुम्हारे संग खेलत हँसत हतो । ता दिन तुम मेरे साथ परे को दियो है । सो वे परे सदा विलछ् पै मेरे साथ खेलत है और मेरे हाथ की सदा रोटी खात हैं । तव श्रीगुसांईजी मंदिर में पधारे । सो श्रीनाथजी के कपोलन पर अपनो श्रीहस्त फेरि के कह्यो, जो- वावा ! अमूके व्रजवासी के साथ आप सूरत गए हते? तव श्रीनाथजी ने कह्यो जो-मैं कहा करों ? वाकों तो तुम्हारे वचन पर विश्वास आय गयो है। ता दिन सों मैं वाके पास रहत हूं। तव श्रीगुसांईजी ने श्री- नाथजी सों बिनती कीनी, जो- आज्ञा होइ तो वा ब्रजवासी कों पातरि करि देई । तव श्रीनाथजी ने कह्यो, जो- उनसों पूछो। जैसे उनकी प्रसन्नता होई तैसें करो। तब श्रीगुसांईजी ने वा ब्रजबासी सों पूछी, जो-अरे भैया ! तोकों पातरि करि देइ ? तव वा ब्रजबासी ने कह्यो, जो- मैं तो तुम्हारी पातरि-बातरि समझत नाहीं हों। जो-मोकों तो तुम सीधा दोइ देउगे तो तुम्हारे परे को रसोई करि देउंगो। और एक सीधा देउगे तो मैं मेरी रसोई करूंगो। तब श्रीगुसांईजी ने श्रीनाथजी के खासा भंडारी सों बुलाय के आज्ञा करी, जो-इनकों सीधा दोइ
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