. एक ब्रजवासी, जाको श्रीगुसांईजीने पर कयो ११५ तेरो मन चाहे वा पातरि पे वैठि। तब श्रीगोवर्द्धननाथजी कहें, जो-त थोरीसी लीटी मेरी पातरि में सों ले। तव वा ब्रजवासी ने कही, मैं तो कछु लेह न देह । ऐसें वचन सुनि श्रीगोवर्द्धन- नाथजी हँसत हँसत वा पातरि की सामग्री अंगीकार कीनी। भावप्रकाश-~-या वार्ता में यह संदेह होई. जो या ब्रजवासी को श्री- गुसांईजी ने ठाकुर तो पधराये नाहीं । परे कयो । सो तो दुरि जाइवे कों को। तोऊ श्रीनाथजी आप , परे' कहे ते कैसें पधारें ? तहां कहत हैं, जो - श्री- गुसांईजी की यानी स्वरूपात्मक है । सो जो - कोऊ जा भाव सों वाको अनुसरत है, ताको तेसे फलित होत है । सो या ब्रजवासी ने वा बानी को भगवत्म्वरूप करि के जानी। और वा पै दृढ विश्वास हु कियो। तातें श्रीनाथजी को वा नाम ते आमनो परयो । तातें विश्वास ऐसो पदार्थ है। ऐसें करत केतेक दिन बीते । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी वा ब्रजवासी के साथ विलछ पे खेलत रहे । सो श्रीगुसांईजी की पास तो जायवो वने नाहीं। तब एक दिन अधिकारी ने मन में विचारयो. जो - यह ब्रजवासी सीघा दोड़ ले जात है। परि ये कछ काम तो करत नाहीं। तातें अव याकी पेटिया बंध करो। तब फेरि मन में विचारी, जो - श्रीगुसांईजी सुनेंगे तो खीझगे। तातें कछु मिप करि के याको पेटिया बंध करोंगो । तव अधिकारी ने भंडारी सों कह्यो,जो - अमुकी ब्रजवासी सीधी लेन आवे तव मो पास पठाईयो । फेरि ब्रज- वासी सीधा लेन को आयो। तव भंडारीने अधिकारी पास पठायो । तव वाने जाँइ के अधिकारी सों कह्यो, जो-क्यों रे भेया अधिकारी ! तृ कहा कहत है ? तब अधिकारीने कन्यो. जो-क्यों रे भैया ! त नित्य सीधा खाँत है, मो अब तोकों श्रीगुसांईजी ने आज्ञा करी है. जो - तृ मृरत जाँइ के भेट
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