पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१२५

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११४ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता भंडारी ने मन में विचारी, जो-श्रीगुसांईजी इनके उपर प्रसन्न रहत हैं तासों दिवायो होयगो। सो याने दोइ पेटिया दीने । पाछे वह ब्रजवासी सीधा दोई लेकै 'विलछु कुंड' पर गयो। तहां वाने रसोई करी। पाछे दोई पातरिवरावरिकी करि धरी। पाऊँ पुकारन लाग्यो, जो - परे भैया ! परे हो! वेगि आऊ । सो ऐसें कहि कहि कै कितनीक बेर पुकारयो । ता पाछे फेरि पुकारयो । जो- अरे भैया! तू आवे तो आऊ । नहीं तो ये दोऊ पातरि तलाव में डारत हों। सो ऐसें कहि कै पातरि उठाई । सो तलाव में डारन लाग्यो। तव श्रीगोवर्द्धननाथजी मन में विचारे, जो-ये तो भोरो है । जो-श्रीगुसांईजी को वाक्य तो समझ्यो नाहीं । सो अव यह भूखन मरेगो । तो श्रीगुसांईजी को खेलत में चैन न होंइगो । तव यह चित्त में विचारिकै श्रीगोवर्द्धन- नाथजी बेगिही पधारे। सो तव वा ब्रजवासी सों कयो, जो- अरे भैया! मैं आयो । तव वह ब्रजवासी बोल्यो, जो-अरे भैया! तू तो अवेर बोहोत लगावत है। जो दारि-रोटी सीरी होइ गइ है। जो-ऐसो करेगो तो और दिन मैं तेरो सीधो न लाउंगो। जो-तू और काहू सों कराय लीजियो। तब श्रीगोवर्द्धननाथजी ने कह्यो, जो- अरे भैया! आज तो पहिलो दिन है। सो तासों अवेर लागी है । जो-काल्हि सों में बेगि ही आउंगो। ऐसे कहि के श्रीगोवर्द्धननाथजी और वह ब्रजवासी अपनी अपनी पातरि पै बैठे। तब श्रीगोवर्द्धननाथजी ने वा ब्रजवासी सों कह्यो, जो- अरे भैया! थोरी सी दारि मोकों और दै। तब वा ब्रजवासी ने कही, जो - अरे भैया! जितनी तेरे आगे हैं तितनी मेरे आगे हैं। जो- मैंनें कछु अधिक तो लीनी नाहीं।