पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/१२१

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११० दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता पाठे जव वैष्णव को गाम कोस दोइ रह्यो तव उन ठगन ने कही, जो - हम तुम्हारी सरनि आए हैं। तुम हम को श्री- गुसांईजीकी सरनि लै जाँई वैष्णव करावो । हम वोहोत दिन ताई दुष्ट कर्म किये हैं । अव हमारो उद्धार होइ सोई करो। तव वैष्णव चुप होइ रह्यो । पाछे वैष्णव अपने घर आयो । तव वाकी स्त्री बोहोत प्रसन्न भई । पाछे वैष्णवने फल फलारी मेवा सामग्री सिद्ध करि न्हाय के श्रीठाकुरजी के उत्थापन कराए। पाछे वजार ते सिधो सामान आयो। तव स्त्रीने रसोई कीनी। पाछे सेनभोग आयो । समै भए भोग सराय अनोसर कियो। पाछे वे ग्यारह ठग और चारिमनुष्य संग ल्याये हते तिन सवन को महाप्रसाद लिवायो। ता पार्छ उन वैष्णव ने महाप्रसाद लियो । पाछे वा वैष्णव ने उन मनुष्य और ठगन को न्यारो घर वताय दियो । पाछे प्रातःकाल उन मनुष्य चारयोन कों बुलाय के चाकरी चुकाय दीनी। कछ और हू दे उन को प्रसन्न करि अपने घर कों बिदा किये । पाठे ठगन सों कह्यो, जो कछु खरची ले जाओ तो आछौ है । तब ठगनने कही, हमने तो तुम्हारी सरनि लीनी है। हम को कछु नाहीं चहिए। श्रीगुसांईजी के सेवक कराय देऊ । तब या वैष्णवने कही, जो- महिना एक में श्रीगोकुल चलंगो। तब ताई तुम यहां न्यारे घर में रहो । खरची चहिए सो लीजियो । तब उन ठगन ने कही, जो - खरची तो हमारी पास है। जब तुम श्रीगोकुल चलोगे तब हम हू श्रीगोकुल चलेंगे। तब वैष्णव ने कही, जो- भलो। तब वैष्णव ने एक हार हीरा को सुनहरी साज को नयो बनवायो। सो हार सिद्ध भयो। तब स्त्रीसहित श्रीठाकुरजी