१०८ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता विनियोग हू न भयो । और ठगन हाथ मृत्यु होत है। यह मेरो अपराध कहा है ? या प्रकार बोहोत आरति करि कै बिनती करी । तव श्रीगुसांईजी आप तो परम दयाल हैं। सो तहाई प्रगट होंइ कै दरसन दिये । और आज्ञा किये, जो- वैष्णव ! तू दुःख मति पावे । पहिले जन्म में तैने इन ग्यारह जन को मारयो है। सो ये न्यारे न्यारे दाव लेते तो तोकों ग्या- रह जन्म लेने परते । सो अव ये तोकों इकठोरे व्है के मारत है । सो एक ही जन्म में तू इन सों छूटेगो । तातें तू डरपे मति । तव यह सुनि के वैष्णव तलाव में तें निकसि उन ठगन के पास आयो । तब उन वैष्णव ने कही, जो-अव तुम वेगि आओ, मोकों मारो । नाँतरु वे चारों मनुष्य आइ जाँइगे । तब वे ग्यारह ठग मन में डरपे । जो - यह जल में काहू सों वात कियो। श्रीगुसांईजी के दरसन तो उन ठगन को भए नाहीं । परंतु बचन सुने । तव ठगन कही, जो - तू साँच कहि । जल में किन सों वात कियो ? तव वैष्णवने कही, जो-तुम को कहा प्रयोजन है ? तुम बेगि मारि कै यह माल की गांठि है सो लेउ । जो-कोई आइ जाइगो तो तुम कों माल न मिलेगो । तातें तुम ढील मति करो। तब ठगननें कही, जो-अब हम तुम को नही मारेंगे। तुम साँच कहो। जल में किन सों बात कियो। या प्रकार वे ठग बोहोत हठ परे । तब वैष्णव ने कही, जो - हमारे गुरु श्रीविठ्ठलनाथजी हैं । तिन सों हमने विनती करी, जो-ये ठग मोकों मारत हैं ! तब गुरु मो मैं कृपा करि आज्ञा दिये, जो-ये अपनो बैर इकठोरे व्है कै लेत है । सो अब ये न मारेंगे तो तोकों ग्यारह जन्म
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