१०६ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता के कछुक माल बेचि के चारि मनुष्य मार्ग में साथ के लिये चाकर राखे । सो अपने घर चलिवे की तैयारी करी । ताही समै वह पहिलो व्यौपारी वा वैष्णव के पास आय पाँवन परयो। और कह्यो, जो-वैष्णव ! मैं तुम सों दगा करयो।तो मेरो सगरो माल योंही गयो। और पहिले घर में वस्तू हती सोऊ आगिने जरि गई । अव मेरे पास खाँयवे को कछु न रह्यो । माकों दसवीस रुपैया वजार के देने हैं। सो अव तुम कछूक दिन मेरे पास रहो तो धरती लेउं । पानें माल निकसेगो तामें तें कछु तुमको देउंगो । ऐसें करो तो तुम मोंको जिवाय लेउ । तव वैष्णव व्यौपारी सों कयो, जो-हम को तो घर छोरे वोहोत दिन भए हैं। तातें हम को जरूर घर जानो है। और रुपैया १००) सौ तुम ले जाऊं। यामें तें जाकों देनो होइ ताकों दीजियो। और तुम कछूक दिन खईयो। तब वह व्यौपारी वा वैष्णव के पास तें रुपैया सौ लैके अपने घर आयो । भावप्रकाश-सो वैष्णव को ऐसो धम है, जो - कोऊ बुरो करें ताहू को भलो करनो। पाछे वह वैष्णव चारि मनुष्य लैकै अपने घर को चल्यो । सो मारग में ग्यारह ठग मिले। सो संग चले। तब वैष्णव ने उन सों कह्यो, जो-तुम कौन हो ? तब उन ठगन कह्यो, जो-हम या गाम में राजा के चाकर हते। सो हमारी चाकरी छुटि गई हैं। सो अब हम को दूसरे गाम में जहां चाकरी मिलेगी तहां करेंगे। तब वैष्णव ने कहीं, जो-रुपैया दोइ दोइ कौ महिना ग्यारहहू कों देइंगे। और एक महिना संग राखेंगे। आगें हमारे समवाई है नाहीं । तुम्हारी ईच्छा होइ तो हमारे संग चलो। तब ठगनने
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