१०४ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता पारी कह्यो, जो - माल न निकलेगो तो हाकिम को मैं देउंगो। तब वह वैष्णव वा व्यौपारी के साथ घर रह्यो । पाठे वा व्यौ- पारीने धरती हाकिम सों ले खुदाई । तामें माल बोहोत निकस्यो ।सो वैष्णव वरस दिन तांई वा व्यौपारी के घर रह्यो। सीधो सामान व्यौपारी पास तें लेके रसोई करि भोग धरि के महाप्रसाद लेतो। पाछे वा वेष्णवने मन में विचारयो, जो- वरस दिन भयो । अव अपने घर चलिये । श्रीगुसांईजी के दरसन करिये । माल हू वोहोत निकस्यो है । तव वा वैष्णव ने व्यौपारी सों कह्यो, जो - अव हम घर जाँइगे, तातें हमारो जो - कछू होई सो देहु । तव व्यौपारीने वैष्णव सों कह्यो, जो- यह माल तो हमारे भाग्य तें निकस्यो है । जो-तू कछु वदतो तो मैं देतो । तुमने चाकरी करी है सो हमने तुम को सीधो पेटिया खायवे कों दीनो है । अव तुम कहा मांगत हो ? तुम्हारे मन में आवे तव चले जाऊ । मन में आवे रहो । तव यह सुनिकै वैष्णव चुप करि रह्यो । मन में कह्यो, जो- देखो ! बरस दिन चाकरी करी और मोकों कछु न दीनो। और माल वोहोत निकस्यो । परंतु भगवद् इच्छा ऐसी ही है । मैं घर तें श्रीठाकुरजी की सेवा छोरिकै आयो। तातें मोको कछ न मिल्यो। श्रीठाकुरजी करत हैं सो आछी ही करत हैं। तासों अब घर चलनो उचित है । जो पेट में पाइवे को तो उहांई मिलत है। ऐसो वह वैष्णव मन मै बिचार करि वा ब्यौपारी सों कछू कयो नाहीं । पाछे दूसरे दिन सांझ भई तब सोय रह्यो । पाठे दुसरे व्यौपारी ने ये समाचार सुने । तब वह व्यौपारी दूसरे दिन वा वैष्णव के पास आयो। पाछे वा ब्यौपारीने वैष्णव सों
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