९६ दोसौ चावन वैष्णवन की वार्ता बोहोत ही बाते कही। तव राजाने हुकम दियो, जो - याकों खरच करि डारो। तव मनुष्यन ने वाकों ठौर मारयो। ता पाठे वाकौ सीस गाम के द्वार पैं वांध्यो। और धड एक वृक्ष सों बांध्यो। ऐसे छोटे भाई को कियो । काहेतें, जो - कोऊ आज पाछे ऐसो काम करे नाहीं। तब ये बात बड़े भाई ने जानी। परि कछू बोल्यो नाहीं। मन में कहे, जो - अपने मन में कलेस करूंगो तो वैष्णव भूखे रहि जाँइगे। और अव तो भयो सो तो भयो। 'निजेच्छा'। ऐसे मन में विचारिकै आपतो न्यारो वेठि रहि कै पाछे स्त्रीन पास सव सामग्री सिद्ध कराय कै श्रीठाकुरजी को भोग समर्यो । पाछे भोग सराय कै सव वैष्णवन को महा- प्रसाद लिवायो । पाछे सव वैष्णव कीर्तन किये। और श्री- आचार्यजी महाप्रभुजी के सेवकन की वार्ता तथा श्रीगुसांईजी के सेवकन की वार्ता और ग्रंथन की टीका सव वैष्णव मिलि के आपुस में चर्चा करन लागे । तव बड़े भाई सों वैष्णवन पूछयो, जो - तुम्हारे छोटे भाई काल्हि तो आए हे ता पाछे फेरि देखे नाहीं । सो कहां है ? तव बड़े भाई ने उन वैष्णवन सों कह्यो, जो - कछू काम गयो होइगो। पाछे दूसरे दिन बड़ी सवारे ही उठि कै सब वैष्णव मिलि कै विदा हेाइ कै चले। तब बड़ो भाई थोरीसी दूरि को पहोंचावन को गयो। तब छोटे भाई को धड़ बंध्यो हतो ताकी नेक दूरि ते बिदा किये । तब वह धड हु हाथ जोरत है, और कंठ सों लगावत है। भावप्रकाश--यहां यह संदेह होई, जो-घड़ हाथ कैसें जोरे १ तहां कहत है, जो-जैसे रनमें सूरवीर लरत में मरत हैं । तव वा समै सूरवीरता को आवेस रहत हैं । तासों वाको घड़ मरे पाछे हू तीन दिन लों, सात दिन लों, लरत हैं। "
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