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दो बहनें

ने बाधा नहीं दी, स्वेच्छा से शशांक को लक्ष्य-साधना के सम्पूर्ण पथ को छोड़ दिया। एक समय उसने अपने सेवा-जाल में शशांक को फाँस रक्खा था। मन में कष्ट होने पर भी उसने उस जाल को शिथिल कर दिया। सेवा अब भी पर्याप्त करती है लेकिन अद्श्य नेपथ्य में रहकर।

लेकिन हाय, आज उसके पति का यह कैसा पराभव धीरे-धीरे प्रकट होता जा रहा है! रोगशय्या से यह सब तो नहीं देख सकती पर काफ़ी आभास पा जाती है। शशांक का मुँह देखते ही समझ सकती है कि वह हमेशा कुछ अजीब तरह के आवेश में रहता है। यह रत्ती भर की लड़की कितने थोड़े समय में इस कर्म-कठिन पुरुष को इतनी बड़ी साधना के आसन से विचलित किए दे रही है! पति की यह अश्रद्धेयता शर्मिला को रोग की पीड़ा से भी अधिक दुःख दे रही है।

शशांक के आहार-विहार वेश-वास आदि को व्यवस्था में अनेक प्रकार की त्रुटि हो रही है इसमें कोई संदेह नहीं। जो पथ्य उसे विशेष रुचिकर है, खाने के समय अचानक देखा जाता है वही अनुपस्थित है। इसकी क़ैफ़ियत मिलती है किन्तु यहाँ किसी क़ैफ़ियत को नहीं।

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