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दो बहनें

लड़कपन को भी वह समझती है, गृहस्थी न चलाने की त्रुटि को भी वह स्नेहपूवक सह लेती है, लेकिन व्यवसाय के क्षेत्र में पति के साथ स्त्री-बुद्धि के दूरत्व को उसने स्वयं अनिवार्य मान लिया था। वहीं ऊर्मि का अबाध आना-जाना उसे ज़रा भी अच्छा नहीं लगता। यह एकदम हिमाकत है। अपनी-अपनी सीमाएँ मानकर चलने को ही गीता ने स्वधर्म कहा है। मन ही मन अत्यन्त अधार होकर ही एक दिन उसने ऊर्मि से पूछा, "अच्छा ऊर्मि, वह सब आँकना, मापना, हिसाब लगाना तुझे क्या सचमुच अच्छा लगता है।"

'मुझे बहुत अच्छा लगता है दीदी।'

शर्मिला ने अविश्वास के स्वर में कहा, 'अच्छा लगता है! उन्हें ख़ुश करने के लिये दिखाया करता है कि अच्छा लगता है।'

यही सही; खिलाने-पिलाने में सेवा-यत्न के द्वारा शशांक को प्रसन्न करना तो शर्मिला को अच्छा ही लगता है। लेकिन इस तरह की ख़ुशी उसकी अपनी ख़ुशी के साथ मेल नहीं खाती।

शशांक को बार-बार बुलाकर कहती, "इसके साथ बेकार समय क्यों नष्ट करते हो। उससे तुम्हारे काम का

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