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दो बहनें

घी दे रहे ह, स्नान-घर में यथासमय गर्म पानी देना भूल जाते हैं, बिस्तर को चादर नहीं बदलते, मोरियों में मेहतर की झाडू नियमित रूप से नहीं पड़ती। उधर धोबी के कपड़े मिलाकर न सम्हालने से कैसी गड़बड़ी हो जाती है, यह तो जानी हुई बात है। वह रह नहीं पाती, चुपके से बिछौने से उठती और पूछताछ करने जाती, पीड़ा बढ़ उठती, बुखार चढ़ जाता, डाक्टर समझ ही न पाता कि क्या हुआ।

अन्त में ऊर्मिमाला को उसकी दीदी ने बुला भेजा। बोली, "कुछ दिन अपना कालेज रहने दे, मेरी गिरस्ती को रक्षा कर, बहन। नहीं तो निश्चिन्त होकर मर भी नहीं पाऊँगी।"

यह इतिहास जिन लोगों ने पढ़ा है वे लोग यहाँ आकर ज़रा व्यंग्य की हँसी हँसकर कहेंगे, 'समझ लिया। समझने के लिये बहुत ज़्यादा बुद्धि की ज़रूरत नहीं। जो घटनेवाला होता है वह घट ही जाता है, और वही काफ़ी भी होता है। ऐसा भी समझने का कोई कारण नहीं कि भाग्य का खेल ताश के पत्तों को छिपाकर चला करेगा--शर्मिला की ही आँखों में धूल झोंककर।'

दीदी की सेवा करने चली हूँ, यह सोचकर ऊर्मि के

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